बिहार की राजनीति पर अरुणाचल की आंच पड़ने लगी है। भाजपा ने तो अपना दांव चल दिया लेकिन विपक्षी दलों ने न केवल उसे लपक लिया है बल्कि बिहार के भाजपा-जदयू गठबंधन को अलग-थलग करने के लिए वह एकबारगी पुनश्च सक्रिय हो गया लगता है।
अरुणाचल प्रदेश में जनता दल यूनाइटेड के सात में से 6 विधायकों का भाजपा में विलय राजनीतिक विमर्श के केंद्र में है। विपक्षी दलों ने इसे लेकर भाजपा के गठबंधन धर्म पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। जद यू प्रमुख नीतीश कुमार ने भले ही सार्वजनिक तौर पर इस बावत मौन अख्तियार कर लिया हो लेकिन अंदरखाने गांठ तो पड़ ही गई है। जद यू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी यह मुद्दा उठना तय है। आगे की रणनीति क्या होगी, यह तो पार्टी ही विचार करेगी लेकिन इसे लेकर भाजपा और जद यू के विरोधी कुछ अधिक ही सक्रिय हो गए हैं।
राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने जदयू में टूट शुरू होने की मुनादी ही कर दी है।और लगे हाथ यह भी कह दिया है कि लगे हाथ जल्द ही बिहार में भी जदयू का सफाया तय है। राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी की मानें तो भाजपा को नीतीश कुमार की कतई परवाह नहीं है।राजद का मानना है कि नीतीश कुमार को इस मामले में साहस दिखाना चाहिए। राजद अगर उनके साहस पूर्ण फैसले की बात कर रही है तो इसके पीछे उसकी सोच एक ही है कि नीतीश के सत्तारथ के दोनों पहिए अलग हो जाएं जिससे कि वह बिहार में राजद पर आश्रित हो जाए।
विपक्ष की प्रतिक्रिया में कहीं न कहीं उकसाने का भाव भी है और सरकार का अस्थिर करने का भी। अब तो यह नीतीश कुमार को ही सोचना है कि उनके लिए क्या उचित है? उनके लिए अरुणाचल महत्वपूर्ण है या कि बिहार। अरुणाचल प्रदेश में जद यू का वह राजनीतिक आधार नहीं है जो उत्तर प्रदेश में है। गौरतलब है कि बिहार विधानसभा के चुनाव में भाजपा के पास 74 सीटें हैं और जदयू के पास केवल 43। इसके बाद भी भाजपा ने नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बाने के अपने चुनावी वादे को पूरा किया है।
यह और बात है कि अरुणाचल प्रदेश में भाजपा के बाद जदयू दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। अप्रैल, 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में जदयू अकेले मैदान में उतरी थी। जदयू ने 15 सीटों पर चुनाव लड़ा था और सात पर जीत हासिल की थी। चार पर वह दूसरे तो तीन पर तीसरे नंबर पर रही थी। वहीं एक सीट पर जदयू चौथे नंबर पर थी। 60 विधानसभा सीटों वाले प्रदेश में भाजपा को 41, एनपीईपी को पांच और कांग्रेस को चार सीटें मिली थीं। इस तरह जदयू वहां दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी।
इस लिहाज से अगर यह कहें कि अरुणाचल प्रदेश में जदयू का ठोस जनाधार स्थापित हो रहा था तो कदाचित गलत नहीं होगा। प्रदेश की राजधानी ईटानगर में भी जदयू की जीत हुई थी। हालांकि, दूसरी बड़ी पार्टी रहने के बाद भी जदयू ने विपक्ष में बैठने के बजाय सरकार को बाहर से समर्थन दिया था। ऐसा पहली बार हुआ है, जब सत्ता में रहते हुए अपने सहयोगी दल के विधायकों को किसी बड़ी पार्टी ने अपने में शामिल कर लिया है।
ऊर्जा निगमों के निदेशकों के रिक्त पदों पर विभागीय इंजीनियरों का हो चयन
माना जा रहा है कि सात में छह विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल कराकर भाजपा ने जदयू को एक कड़ा संदेश भी दिया है। भाजपा द्वारा जदयू विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल किए जाने पर कांग्रेस ने तंज कसा है। कांग्रेस ने कहा है कि भाजपा विपक्षी पार्टी को तोड़ती रही है, पर अरुणाचल प्रदेश की घटना ने साफ कर दिया है कि अब वह सहयोगी दल को भी तोड़ने लगी है। अरुणाचल प्रदेश में जेडीयू के 7 विधायक थे। 6 विधायकों के पाला बदलने से सिर्फ एक विधायक ही पार्टी में बचा है। अरुणाचल विधानसभा द्वारा जारी बुलेटिन के अनुसार रमगोंग विधानसभा क्षेत्र के तालीम तबोह, चायांग्ताजो के हेयेंग मंग्फी, ताली के जिकके ताको, कलाक्तंग के दोरजी वांग्दी खर्मा, बोमडिला के डोंगरू सियनग्जू और मारियांग-गेकु निर्वाचन क्षेत्र के कांगगोंग टाकू भाजपा में शामिल हो गए हैं।
इसके पीछे जदयू की नोटिस को भी बहुत हद तक जिम्मेदार माना जा रहा है। जदयू ने 26 नवंबर को सियनग्जू, खर्मा और टाकू को पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए कारण बताओ नोटिस जारी किया था और उन्हें निलंबित कर दिया था। इन छह विधायकों ने इससे पहले पार्टी के परिष्ठ सदस्यों को कथित तौर पर बताए बिना तालीम तबोह को विधायक दल का नया नेता चुन लिया था। अरुणाचल प्रदेश के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बीआर वाघे ने कहा कि हमने पार्टी में शामिल होने के उनके पत्रों को स्वीकार कर लिया है। सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार बिहार में कोई प्रतिक्रियावादी कदम उठाएंगे या सरकार को स्थिर बनाए रखने के लिए परम धैर्य का परिचय देंगे।
बिहार में सरकार के कमजोर होने का मतलब है नीतीश का कमजोर होना और लगता नहीं कि नीतीश अपने गृहराज्य में किसी भी तरह का राजनीतिक जोखिम लेंगे। बिहार में नीतीश के कमजोर होने का मतलबहै बिहार का कमजोर होना। भाजपा को भी इस तरह की गतिविधियों में शामिल होने से पूर्व एक बार सोचना जरूर चाहिए। गठबंधन हमेशा विश्वास का होता है और अगर वही नहीं बचा तो वह राजनीतिक अस्पृश्य की स्थिति में आ जाएगी। कोई भी राजनीतिक दल उससे जुड़ना पसंद नहीं करेगा।
इसलिए क्षणिक लाभ प्राप्त करने से पूर्व उसे उसके दूरगामी प्रभावों पर भी विचार करना होगा। किसान आंदोलन के चलते वैसे ही उससे जुड़े दल सहमे हुए हैं। उनकी स्थिति सांप-छछूंदर वाली होकर रह गई है। जब उन्हें भाजपा से भी डर लगने लगेगा तब क्या होगा, इस पर भी भाजपा के रणनीतिकारों को मंथन करना चाहिए। यही वक्त का तकाजा भी है।