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बिहार चुनाव 2020: बिहार का पहला चुनाव, मांगा जा रहा 30 साल का हिसाब

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बिहार चुनाव 2020

चुनावों में आम तौर पर पांच साल का ही हिसाब होता है। सत्तारूढ़ दल पांच साल की उपलब्धियों का ब्योरा देता है। विरोधी दल खामियों की फेहरिश्त बनाकर जवाब मांगता है। देश-दुनिया की यही परिपाटी है। राज्य में यह पहला चुनाव है, जिसमें पूरे 30 साल के कामकाज की चर्चा हो रही है। वोट मांगने का आधार सत्ता के इसी लंबे कालखंड को बनाया जा रहा है।

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सत्तारूढ़ दल अपनी 15 साल की उपलब्धियों की चर्चा कर रहा है। उसके मुताबिक राज्य में जो कुछ अच्छा हुआ, वह इसी समय में हुआ। उसके पहले सड़क में गड्ढ़े थे। बिजली नहीं थी। स्कूलों में पढ़ाई और अस्पतालों में दवाई नहीं थी। कुछ भी नहीं था। सत्तारूढ़ दल अपनी उपलब्धियां बताने और पूर्ववर्ती सरकार की खामियां गिनाने पर बराबर समय देता है।

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उधर, विपक्ष के आरोपों पर गौर करें तो यही भाव निकलता है कि उसके 15 साल के शासन काल में जितने अच्छे काम हुए, उन सबको मौजूदा सरकार ने तबाह कर दिया। मतलब 15 साल में जितनी सड़कें बनी थी, उसको खोद दिया गया। स्कूल और अस्पताल बंद कर दिए गए। कुल मिला कर कुछ अच्छा नहीं हुआ।

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कुल मिलाकर राजनीतिक दलों के मामले में बात यह बन रही है कि 30 वर्षों के अच्छे और खराब शासन में सबकी भागीदारी है। अच्छे में भी और बुरे में भी। अगर विकास में केंद्र सरकार की भूमिका की चर्चा करें तो उस मामले में भी सभी दलों की भागीदारी रही है। लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के 15 वर्षों के शासन में केंद्र में जनता दल, समाजवादी जनता पार्टी, कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व की सरकारें थीं। नीतीश कुमार के 15 वर्षों में नौ साल कांग्रेस के नेतृत्व की सरकार थी। इधर, छह साल से भाजपा केंद्र सरकार की अगुआई कर रही है।

 

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