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60 साल की है चुनाव में लगने वाली नीली स्याही, जानिए इसका इतिहास

Lok Sabha Election

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नई दिल्ली। अगर आप वोट डाल रहे हों तो आपकी अंगुलियों में नीले रंग की एक अमिट स्याही (Blue ink) लगाई जाती है। अंगुली पर नीले रंग की स्याही ((Blue ink)) का ये निशान अब हमारे चुनावी प्रतीकों में माना जाता है। यह निशान बताता है कि किसने वोट (vote) डाला है और किसने नहीं। यह निशान 15 दिनों से पहले नहीं मिट सकता। ऐसा क्या होता है इस स्याही में और क्या है इसका इतिहास, आइए जानते हैं।

कर्नाटक में एक जगह है मैसूर। इस जगह पर पहले वाडियार राजवंश का राज चलता था। आजादी से पहले इसके शासक महाराजा कृष्णराज वाडियार थे। वाडियार राजवंश विश्व के सबसे अमीर राजघरानों में से एक था। इस राजघराने के पास खुद की सोने की खान (गोल्ड माइन) थी। 1937 में कृष्णराज वाडियार ने मैसूर लैक एंड पेंट्स नाम की एक फैक्ट्री लगाई। इस फैक्ट्री में पेंट और वार्निश बनाने का काम होता था।

कर्नाटक में एक जगह है मैसूर। इस जगह पर पहले वाडियार राजवंश का राज चलता था। आजादी से पहले इसके शासक महाराजा कृष्णराज वाडियार थे। वाडियार राजवंश विश्व के सबसे अमीर राजघरानों में से एक था। इस राजघराने के पास खुद की सोने की खान (गोल्ड माइन) थी। 1937 में कृष्णराज वाडियार ने मैसूर लैक एंड पेंट्स नाम की एक फैक्ट्री लगाई। इस फैक्ट्री में पेंट और वार्निश बनाने का काम होता था।

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भारत के आजाद होने के बाद इस फैक्ट्री पर कर्नाटक सरकार का अधिकार हो गया। अभी इस फैक्ट्री में 91 प्रतिशत हिस्सेदारी कर्नाटक सरकार की है। 1989 में इस फैक्ट्री का नाम बदल मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड कर दिया गया।

भारत के आजाद होने के बाद इस फैक्ट्री पर कर्नाटक सरकार का अधिकार हो गया। अभी इस फैक्ट्री में 91 प्रतिशत हिस्सेदारी कर्नाटक सरकार की है। 1989 में इस फैक्ट्री का नाम बदल मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड कर दिया गया।

भारत में पहली बार चुनाव 1951-52 में हुए थे। इन चुनावों में मतदाताओं की अंगुली में स्याही लगाने का कोई नियम नहीं था। चुनाव आयोग को किसी दूसरे की जगह वोट डालने और दो बार वोट डालने की शिकायतें मिलीं। इन शिकायतों के बाद चुनाव आयोग ने इसे रोकने के लिए कई विकल्पों पर विचार किया। इनमें सबसे अच्छा तरीका एक अमिट स्याही का इस्तेमाल करने का था।

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भारत में पहली बार चुनाव 1951-52 में हुए थे। इन चुनावों में मतदाताओं की अंगुली में स्याही लगाने का कोई नियम नहीं था। चुनाव आयोग को किसी दूसरे की जगह वोट डालने और दो बार वोट डालने की शिकायतें मिलीं। इन शिकायतों के बाद चुनाव आयोग ने इसे रोकने के लिए कई विकल्पों पर विचार किया। इनमें सबसे अच्छा तरीका एक अमिट स्याही का इस्तेमाल करने का था।

चुनाव आयोग ने नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी ऑफ इंडिया (NPL) से ऐसी एक स्याही बनाने के बारे में बात की।एनपीएल ने ऐसी स्याही ईजाद की जो पानी या किसी रसायन से भी मिट नहीं सकती थी। एनपीएल ने मैसूर पेंट एंड वार्निश कंपनी को इस स्याही को बनाने का ऑर्डर दिया। साल 1962 में हुए चुनावों में पहली बार इस स्याही का इस्तेमाल किया गया। और तब से अब तक यह स्याही ही हर चुनाव में इस्तेमाल की जाती है।

चुनाव आयोग ने नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी ऑफ इंडिया (NPL) से ऐसी एक स्याही बनाने के बारे में बात की।एनपीएल ने ऐसी स्याही ईजाद की जो पानी या किसी रसायन से भी मिट नहीं सकती थी। एनपीएल ने मैसूर पेंट एंड वार्निश कंपनी को इस स्याही को बनाने का ऑर्डर दिया। साल 1962 में हुए चुनावों में पहली बार इस स्याही का इस्तेमाल किया गया। और तब से अब तक यह स्याही ही हर चुनाव में इस्तेमाल की जाती है।

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एनपीएल या मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड ने कभी भी इस स्याही को बनाने के तरीके को सार्वजनिक नहीं किया। इसका कारण बताया गया कि अगर इस गुप्त फॉर्मूले को सार्वजनिक किया गया तो लोग इसको मिटाने का तरीका खोज लेंगे और इसका उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा। जानकारों के मुताबिक इस स्याही में सिल्वर नाइट्रेट मिला होता है जो इस स्याही को फोटोसेंसिटिव नेचर का बनाता है। इससे धूप के संपर्क में आते ही यह और ज्यादा पक्की हो जाती है।

एनपीएल या मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड ने कभी भी इस स्याही को बनाने के तरीके को सार्वजनिक नहीं किया। इसका कारण बताया गया कि अगर इस गुप्त फॉर्मूले को सार्वजनिक किया गया तो लोग इसको मिटाने का तरीका खोज लेंगे और इसका उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा। जानकारों के मुताबिक इस स्याही में सिल्वर नाइट्रेट मिला होता है जो इस स्याही को फोटोसेंसिटिव नेचर का बनाता है। इससे धूप के संपर्क में आते ही यह और ज्यादा पक्की हो जाती है।

जब यह स्याही नाखून पर लगाई जाती है तो भूरे रंग की होती है। लेकिन लगाने के बाद गहरे बैंगनी रंग में बदल जाती है। सोशल मीडिया पर एक अफवाह चली थी कि इस स्याही को बनाने में सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन इन अफवाहों को बकवास करार दिया गया। यह स्याही अलग-अलग रसायनों का इस्तेमाल कर बनाई जाती है।

जब यह स्याही नाखून पर लगाई जाती है तो भूरे रंग की होती है। लेकिन लगाने के बाद गहरे बैंगनी रंग में बदल जाती है। सोशल मीडिया पर एक अफवाह चली थी कि इस स्याही को बनाने में सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन इन अफवाहों को बकवास करार दिया गया। यह स्याही अलग-अलग रसायनों का इस्तेमाल कर बनाई जाती है।

मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड के मुताबिक 28 देशों को इस स्याही की आपूर्ति की जाती है। इनमें अफगानिस्तान, तुर्की, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया, नेपाल, घाना, पापुआ न्यू गिनी, बुर्कीना फासो, बुरुंडी, कनाडा, टोगो, सिएरा लियोन, मलेशिया, मालदीव और कंबोडिया शामिल हैं। भारत इस स्याही का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। भारत में अंगुली पर एक लकड़ी से यह स्याही लगाई जाती है वहीं कंबोडिया और मालदीव में अंगुली को ही स्याही में डुबोया जाता है। अफगानिस्तान में पेन से, तुर्की में नोजल से, बुर्कीना फासो और बुरुंडी में ब्रश से यह स्याही लगाई जाती है।

मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड के मुताबिक 28 देशों को इस स्याही की आपूर्ति की जाती है। इनमें अफगानिस्तान, तुर्की, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया, नेपाल, घाना, पापुआ न्यू गिनी, बुर्कीना फासो, बुरुंडी, कनाडा, टोगो, सिएरा लियोन, मलेशिया, मालदीव और कंबोडिया शामिल हैं। भारत इस स्याही का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। भारत में अंगुली पर एक लकड़ी से यह स्याही लगाई जाती है वहीं कंबोडिया और मालदीव में अंगुली को ही स्याही में डुबोया जाता है। अफगानिस्तान में पेन से, तुर्की में नोजल से, बुर्कीना फासो और बुरुंडी में ब्रश से यह स्याही लगाई जाती है।

सबसे बड़ा सवाल ये भी है कि ये स्याही कितने दिनों तक नहीं मिटती। मैसूर पेंट एंड वार्निश कंपनी ने कहा था कि इस स्याही को किसी भी तरह 15 दिन से पहले मिटाना संभव ही नहीं है।

सबसे बड़ा सवाल ये भी है कि ये स्याही कितने दिनों तक नहीं मिटती। मैसूर पेंट एंड वार्निश कंपनी ने कहा था कि इस स्याही को किसी भी तरह 15 दिन से पहले मिटाना संभव ही नहीं है।

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