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JL50 Review- सस्पेंस, इतिहास, नक्सलवाद और साइंस से लेकर मेलोड्रामा तक, (ऑल इन वन)

JL 50 REVIEW

सस्पेंस, इतिहास, नक्सलवाद और साइंस से लेकर मेलोड्रामा तक

पहला विचार है कि समय सदा चलता रहता है और समय के साथ हम चलते रहते हैं। दूसरा विचार है कि समय स्थिर है। चलते हम हैं। समय सिर्फ वर्तमान है। भूत और भविष्य हमारे मन की उड़ान है। निर्देशक शैलेंदर व्यास की वेब सीरीज 1984 में कलकत्ता से उड़े एक विमान जेएल50 की कहानी कहती है, जो आसमान में गायब हो जाता है मगर मिलता है 35 साल बाद 2019 में। क्रैश। सवाल यह कि आखिर बरसों पहले गायब होकर अब प्रकट हुई इस फ्लाइट का रहस्य क्या है। वैसे यहां कहानी अचानक गायब हुए एक अन्य पैंसेजर प्लेन एओ26 की तलाश से शुरू होती है।


सीबीआई ऑफिसर शांतनु (अभय देओल) को जांच का काम सौंपा जाता है कि आखिर पश्चिम बंगाल के घने जंगल-पहाड़ों वाली जिस जगह एक विमान के क्रैश होने की खबर आई है, वह क्या है क्योंकि वह तो एओ26 का रूट नहीं था। वहां रेस्क्यू ऑपरेशन अधिकारियों से मिलने पर शांतनु को पता चलता है कि जिस विमान का मलबा मिला है, वह एओ26 नहीं बल्कि जेएल50 है। चीजें उलझने लगती हैं। शांतनु को रहस्य सुलझाना है कि आखिर यह मामला क्या है।

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ओटीटी प्लेटफॉर्म सोनी लिव पर रिलीज हुई चार कड़ियों वाली जेएल50 साइकोलॉजिकल थ्रिलर है, जिसकी शुरुआत में लगता है कि इस भूल-भुलैया के खेल में मजा आएगा। लेकिन यह खुशी ज्यादा समय तक नहीं टिक पाती क्योंकि कहानी कमजोर पड़ने लगती है। भूल-भुलैया सिंगल ट्रैक में बदलने लगती है। एओ26 खो जाता है और जेएल50 की कहानी किसी कच्चे साइंस फिक्शन की तरह उभरती है। जिसमें लेखक-निर्देशक शैलेंदर व्यास इतिहास में ईसा पूर्व 263 तक पीछे चले जाते हैं, जब सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध लड़ने के बाद भविष्य में किसी का खून न बहाने की कसम खा ली और अपने समय के सर्वश्रेष्ठ ज्ञान को नौ किताबों की जिल्दों में बांध कर दुनिया से छुपा दिया। इसी में एक किताब अंग्रेजों के हाथ लग गई और उन्होंने उस पर रिसर्च कराना शुरू कर दी, जो देश की आजादी के बाद बेकार जानकर बंद करा दी गई।


यह वेबसीरीज अच्छी शुरुआत के बाद रोमांच की राह से भटक जाती है। उसके चेहरे पर अभय देओल की दाढ़ी जैसी बोरियत उगने लगती है। वह आकर्षण खोती चली जाती है। कहानी में उत्साह की जगह उदासी ले लेती है क्योंकि जेएल50 की पायलट बीहू (रितिका आनंद) अपने जमाने के हिसाब से खुले मिजाज की लड़की थी। उसकी एक लड़के से शादी होने वाली थी मगर वह सात फेरे लेने से पहले ही मां बन गई। घरवालों ने उसे बताया कि उसका बच्चा पैदा होने के बाद मर गया। इसके बाद शैलेंदर कहानी में नक्सलवाद को भी ले आए क्योंकि कोलकाता और पश्चिम बंगाल की कोई कहानी इस ट्रेडमार्क के बिना शायद पूरी नहीं हो सकती।

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इतिहास और नक्सलवाद कहानी में भारी न हो जाएं तो फिर शैलेंदर फिजिक्स और क्वांटम फिजिक्स पर भी आ गए। टाइम ट्रेवलिंग पर गंभीर चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि यह ‘पोसीबुल’ नहीं है। यह सिर्फ किताबों में है क्योंकि टाइम ट्रेवलिंग के लिए लोगों को लाइट (रोशनी) की स्पीड से चलना पड़ेगा। इसके लिए जितनी ऊर्जा (वन ट्रिलियन इलेक्ट्रो वाट) की जरूरत है, वह धरती पर है ही नहीं। ऐसे में टाइम ट्रेवलिंग का सब्जेक्ट वेस्ट ऑफ टाइम है। जेएल50 खत्म होते-होते आप इसके बारे में भी कुछ यही सोचने लगते हैं। वेस्ट ऑफ टाइम।

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करिअर के शुरुआती दौर में मनोरमा सिक्स फीट अंडर, ओए लकी लकी ओए और देव डी जैसी फिल्मों में अपने अंदाज की चमक छोड़ने वाले अभय देओल अब फीके पड़ चुके हैं। बीते दस साल में उनका अभिनय आगे नहीं बढ़ा, न ही वह कोई फिल्म देखने की वजह बने। जेएल50 में भी वह असर पैदा नहीं करते। उनके भीतर एक रोचक और शानदार केस की जांच करने को इच्छुक ऊर्जा नजर नहीं आती। वह थके और चुके हुए लगते हैं।

क्वांटम फिजिक्स के प्रोफेसर सुब्रतो बोस के रूप में पंकज कपूर जरूर अपने किरदार में फिट हैं मगर शैलेंदर ने उन्हें कहानी के केंद्र में रखने के बजाय हाशिये पर डाल दिया। पंकज कहानी के दूसरे हिस्से में कुछ हाथ-पैर हिलाते हैं जबकि पहले हिस्से में उनका इंट्रोडक्शन मात्र होता है। फिल्म में पियूष मिश्रा का रोल उनके करिअर के सबसे खराब किरदारों में गिना जाएगा। रितिका आनंद और राजेश शर्मा ने वह किया, जो उनके हिस्से में बचा। इन सब बातों के बाद आपके पास जो समय बच रहा है, वह बचा लीजिए।

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इस सीरीज को सोनी लिव ऐप पर देखा जा सकता है। वेब सीरीज़ को शैलेंद्र व्यास ने डॉयरेक्ट किया है। शैलेंद्र व्यास इससे पहले कुछ फ़िल्म लिख चुके हैं।

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