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त्रिवेंद्र के इस्तीफे के निहितार्थ

सियाराम पांडे ‘शांत’

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने  अंतत: इस्तीफा दे दिया।  ऐसा उन्होंने क्यों किया, यह तो वही बेहतर बता सकते हैं लेकिन  उनकी  कार्यशैली से परिचित लोगों को पता है कि उनके साथ देर-सवेर ऐसा होना ही था। उनसे न तो राज्य के भाजपा नेता खुश थे और न ही  मतदाता। जिस क्षत्रिय विरादरी से वे संबंधित हैं, उसमें भी गैर रावत राजपूत उनसे नाराज चल रहे थे। सच कहा जाए तो उनकी रीति-नीति से न तो भाजपा खुश थी और न ही संघ  परिवार।  पं. दीनदयाल उपाध्याय के परिजनोंकी नाराजगी भी किसी से छिपी नहीं थी। इस लिहाज से उनका इस्तीफा तो बहुत पहले ही हो जाना था लेकिन अपनी होशियारी के चलते वे हर बार अपना बचाव करने में सफल हो जाते रहे लेकिन इस बार उनका दांव नहीं चल सका।

कहते हैं, न कि कर्म की निर्जरा नहीं होती। उनके अपने ही निर्णय उनके लिए वाटरलू साबित हो गए और उन्हें अपने पद से त्यागपत्र देने को विवश होना पड़ा। उन्होंने त्यागपत्र देने के बाद जो कुछ भी कहा, वह राजनीतिक शिष्टाचार और औपचारिकता भर है। वर्ना कौन नहीं जानता के मुख्यमंत्री जैसा सम्मानजनक पद कोई भी नेता यूं ही अपने हाथों से जाने नहीं देना चाहता। उनके इस्तीफे के बाद राज्य में राजनीतिक चचार्ओं का बाजार गर्म हो गया है। कई तरह की आवाजें उत्तराखंड की राजनीतिक वादियों में गूंजने लगी हैं। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने तो यहां तक कह दिया है कि अब तो भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भी यह मानने लगा है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने राज्य में कोई काम नहीं किया है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि भाजपा अब किसे राज्य का मुख्यमंत्री बनाती है लेकिन 2022 में उसकी सत्ता में वापसी नहीं होने वाली है। यह और बात है कि हरीश रावतका बयान नितांत सियासी है। अन्यथा उन्हें भी विजय बहुगुणा को हटाकर ही मुख्यमंत्री बनाया गया था। इसमें शक नहीं कि  त्रिवेंद्र सिंह रावत संघ के प्रचारक से मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे थे।

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उनसे संघ परिवार और भाजपा दोनोंको बहुत अपेक्षा थी लेकिन वे उन अपेक्षाओं पर खरेनहीं उतर सके। उन पर भ्रष्टाचार के आरोपके एक मामले में अदालत  तक को जांंच काआदेश देना पड़ा। किसी जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति के लिए इससे असहज स्थिति भला और क्या हो सकती है? 1979 में त्रिवेंद्र सिंह रावत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे। 1981 में संघ के प्रचारक के रूप में काम करने का उन्होंने संकल्प लिया। 1985 में वे देहरादून महानगर के प्रचारक बने। 1993 में वह भाजपा के क्षेत्रीय संगठन मंत्री बने। 1997 में भाजपा प्रदेश संगठन महामंत्री बने। 2002 में भाजपा प्रदेश संगठन महामंत्री बने। 2002 में विधानसभा चुनाव में डोईवाला विधानसभा से विजयी हुए। 2007 में डोईवाला विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से उत्तराखंड विधान सभा के लिए भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में विजयी हुए।

भारतीय जनता पार्टी के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री बने। 2017 में डोईवाला विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से उत्तराखंड विधान सभा के लिए भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में विजयी हुए। 17 मार्च 2017 को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नियुक्त हुए। अगर वे सबका साथ-सबका विकास और सबका विष्वास की भाजपाकी रीति नीति और सत्य, संवाद और सेवाके संघ के ध्येय वाक्य पर अमल करते तो नारायण दत्त तिवारी की तरह पांचसाल सत्ता संभालने वाले राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री होते लेकिन अपनी मनमानियों और उग्र व्यवहार की बदौलत उन्होंने अपनोंकाभी प्यार खोदिया। उनकी कुर्सी जाने की बड़ी वजह राज्य के 4 जिलों चमोली, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और बागेश्वर को मिलाकर नया गैरसैंण मंडल बनाना माना जा रहा है। हालांकि, यह अकेली वजह नहीं है, जिसके कारण रावत को कुर्सी गंवानी पड़ी है। वह इससे पहले भी कई ऐसे फैसले कर चुके थे, जिनकी वजह से भाजपा आलाकमान को उन्हें हटाने का फैसला करना पड़ा। रावत पर करप्शन का कोई आरोप नहीं था, लेकिन एक सर्वे में उन्हें सबसे अलोकप्रिय  मुख्यमंत्री बताया गया था। यह बात भी उनके खिलाफ चली गई। रावत ने गढ़वाल के हिस्से गैरसैंण मंडल में कुमांऊ के दो जिलों अल्मोड़ा और बागेश्वर को शामिल किया तो पूरे कुमाऊं में सियासी तूफान आ गया। इसे कुमांऊ की अस्मिता और पहचान पर हमला माना गया। उनके फैसले के खिलाफ पूरे कुमाऊं के भाजपा नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व के सामने मोर्चा खोल दिया। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले त्रिवेंद्र के इस फैसले को उन्होंने आत्मघाती करार दिया। केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को सरकार के अधीन करने के उनके निर्णय से ब्राह्मण, तीर्थ पुरोहित और साधु-संत नाराज चल रहे थे।

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ब्राह्मण समाज में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। यही नहीं भाजपा के ही सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दे दी थी। हालांकि हाईकोर्ट में सरकार जीत गई थी, लेकिन स्वामी सुप्रीम कोर्ट चले गए और अभी मामले पर सुनवाई हो रही है। त्रिवेंद्र के इस फैसले से भाजपा आलाकमान भी खुश नहीं था। वैसे वजहें तो कईरहीं, जिसने त्रिवेंद्र सिंह रावत की हालत पतली की लेकिन अभी भी वे अपनी हार की वजह केंद्रीय नेत्तव से पूछनेकी बात जिस तरह कह रहेहैं, वह बहुत  मुऊीद नहीं है और रस्सी जल जाने के बात एैंठन के बरबरार रहने की ही पुष्टि कर रहे हैं।

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