नई दिल्ली। भारत में लोकसभा और विधान सभा चुनाव एक साथ न होने से आम जनता, राजनेताओं और सरकारों का जरूरत से अधिक समय और अत्यधिक धन बर्बाद होता है। इतना ही नहीं बार-बार चुनाव होने से कई विकास कार्यों पर ब्रेक लग जाती है, क्योंकि चुनाव की वजह से आचार संहिता लागू हो जाती है। इसी वजह से माना जा रहा है कि एक भारत एक चुनाव से देश में होने वाली राजनैतिक विसंगतियों से छुटकारा पाया जा सकता है। देखने वाली बात यह होगी कि भारत जैसे विविधता वाले देश जहां अलग-अलग चुनाव भी एक चुनौती है वहां एक बार में लोकसभा और विधानसभा चुनाव करवाने में कैसी रणनीति अपनाई जाती है।
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2019 के आम चुनाव सात चरणों में संपन्न हुए और इसमें 39 दिन अर्थात सवा महीने का समय लगा। इस दौरान कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए लगभग 2.7 लाख अर्धसैनिक बलों और 20 लाख पुलिस फोर्स का सहारा लेना पड़ा। हाल ही में हुए बिहार विधानसभा चुनाव 11 दिनों तक तीन फेज में हुए। यहां केंद्र ने 30 हजार अर्धसैनिक बलों को उतारने की बात कही थी। राज्य की पुलिस फोर्स का जो इस्तेमाल हुआ सो अलग। ऐसे में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव करवाने में लगने वाले समय और संसाधन का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है।
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असल में विविधता वाले हमारे देश में राजनीतिक परिस्थितियां इसके अनुकूल नहीं हैं। बहु-दलीय राजनीतिक व्यवस्था वाले हमारे देश में जनता के चुनावी मुद्दे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र, एक राज्य से दूसरे राज्य और फिर राज्य से राष्ट्रीय स्तर तक अलग-अलग हैं। मुद्दों के साथ-साथ उनकी चुनावी प्राथमिकताएं भी अलग-अलग हैं। किसी राज्य में लोग अपने यहां के क्षेत्रीय दलों को पसंद करते हैं तो किसी राज्य के राष्ट्रीय दलों को तरजीह देते हैं। भू-सामाजिक और राजनीतिक विविधता से लोगों के सामने बहुत से विकल्प खुले होते हैं और जन-मानस अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ही अलग-अलग प्रशासनिक स्तर पर दलों का चयन करते हैं। ऐसे में एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय दलों को काफी नुकसान होगा और उनकी संभावनाएं क्षीण होती जाएंगी, क्योंकि बदली हुई निर्वाचन प्रणाली में राष्ट्रीय मुद्दों और जनभावनाओं का प्रभुत्व होगा।