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चिंता का सबब बनतीं  किसान पंचायतें

kisan panchayat

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देश भर में जिस तरह किसानों की पंचायतें हो रही हैं। खाप पंचायतें हो रही हैं और जिस तरह किसान अपनी मांगों को लेकर लामबंद हो रहे हैं, वह किसान जागरूकता के लिहाज से तो अच्छी बात हो सकती है लेकिन इससे केंद्र और भाजपाशासित राज्यों की सरकारों की पेशानियों पर बल पड़ गए हैं। ग णतंत्र दिवस पर दिल्ली के लालकिले में किसानों के एक उग्र समूह द्वारा धार्मिक ध्वज फहराने की जो अप्रत्याशित घटना हुई, उसके बाद एक झटके में ही किसान बैकफुट पर नजर आये थे। लग रहा था दिल्ली की सरहदों पर जमा किसानों का आंदोलन अब महज कुछ घंटों का ही रह गया है, लेकिन दिल्ली पुलिस और केंद्र सरकार ने जिस उतावले अंदाज में इस आंदोलन की गर्दन दबोचने की कोशिश की, उससे बिफरे राकेश टिकैत के आंसुओं ने ऐसा भावनात्मक दबाव बनाया कि देखते ही देखते पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और अब एक पखवाड़े बाद जब ये पंक्तियां लिखी जा रही है, समूचा उत्तर भारत किसान महापंचायतों के तूफान से घिर गया है।

गणतंत्र दिवस के बाद दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर में राकेश टिकैत के रो पड़ने के तुरंत बाद उनके बड़े भाई नरेश टिकैत ने 28 जनवरी 2021 को मुजफरनगर में सरकार के प्रतिबंधों के बावजूद महापंचायत बुलायी और इसमें मानो इंसानों का सैलाब ही उमड़ आया। पंचायत स्थल में जमीन के ऊपर जाकर ड्रोन से खीची गई तस्वीरों से पता चलता है कि मुजफरनगर महापंचायत में एक लाख से कम लोग नहीं रहे होंगे। लेकिन यह तो महज शुरु आत थी। मुजफरनगर पंचायत के तीन दिनों बाद ही 31 जनवरी 2021 को बागपत में जो किसान महापंचायत आयोजित हुई, उसमें मुजफरनगर की ही तरह किसानों का सैलाब तो उमड़ा ही, बड़ी बात यह हुई कि पिछले 32 सालों से सर्वखाप पंचायत का जो लगातार अभाव जारी था, वह अभाव भी खत्म हो गया। यह और बात की दिल्ली की सरहदों पर अब किसानों का उतना जमावड़ा नहीं रह गया है जितनी भीड़ किसान महापंचायतों में उमड़ रही है।  32 सालों में पहली बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कोई सर्वखाप के समर्थन वाली महापंचायत हुई। मालूम हो कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान का एक बड़ा हिस्सा और पंजाब का भी एक बड़ा हिस्सा खाप पंचायतों की संस्कृति वाला है।

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खाप पचांयतें दरअसल जातीय पंचायतें होती हैं और उसमें तय हुई बातों को इन खापों के दायरे में आने वाले लोग किसी पत्थर की लकीर से कम नहीं मानते। बागपत में 31 जनवरी को जो रैली हुई उसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश की दो प्रमुख खापें बालियान खाप और देशखाप एक साथ एक पंचायत में आयीं। सिर्फ ये दो खापें ही नहीं बल्कि चौबीसी, थांबा और चौगाना खापें भी इस पंचायत में एक साथ एक मंच पर इकट्ठा हो गईं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उत्तर भारत में दिल्ली के किसान आंदोलन को किसानों ने किस कदर प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। बहरहाल सिर्फ मुजफ्फरनगर या बागपत में ही किसान महापंचायतें नहीं हुई बल्कि पिछले 15 दिनों में अलग-अलग जगहों में करीब दो दर्जन महापंचायतें हो चुकी हैं और जिस तेजी से ऐसी ही पंचायतों की कार्य योजना बनायी जा रही है, उससे अगले दो महीने में देश के हर महत्वपूर्ण कोने में एक बड़ी किसान महापंचायत देखने को मिल सकती है। मुजफरनगर और बागपत के बाद 10 फरवरी 2021 को सहारनपुर के चिलखाना में, 12 फरवरी 2021 को राजधानी दिल्ली के टीकरी बॉर्डर में, 13 फरवरी 2021 को बहादुरगढ़ हरियाणा में, 14 फरवरी 2021 को करनाल के इंद्री अनाज मंडी में, 15 फरवरी 2021 को बिजनौर और मेरठ में, 17 फरवरी 2021 मुरादाबाद की बिल्लारी तहसील में, 18 फरवरी 2021 को राजस्थान के श्री गंगानगर में और 19 फरवरी 2021 को हनुमानगढ़ राजस्थान में किसान महापंचायतें हुईं या होनी तय है। इन सभी जगहों पर किसान महापंचायतें तो हो ही रही हैं, इनके अलावा महाराष्टÑ के यवतमाल और औरंगाबाद में तथा आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी आने वाले दिनों में इसी तरह की बड़ी किसान महापंचायतों के आयोजन की घोषणाएं हो चुकी हैं।

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इन महापंचायतों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, बिहार और मध्य प्रदेश के बड़े हिस्से में लगातार स्थानीय स्तर पर क्षेत्रीय किसान पंचायतें भी हो रही हैं, जिसे भले सरकार बहुत मामूली घटना मान रही हो, लेकिन आजादी के बाद यह पहला ऐसा मौका है जब एक साथ इतने बड़े पैमाने पर पंचायतें, खासतौर पर किसान पंचायतें, सरकार के खिलाफ उठ खड़ी हुई हैं। उत्तर भारत के इस तरह पंचायतों के तूफान से घिर जाने के गंभीर निहतार्थ हैं। सरकार को इसे बहुत हल्के में नहीं लेना चाहिए। माना कि किसान पंचायतें अहिंसक तरीके से हो रही हैं और किसान नेताओं का लगातार आह्वान भी है कि आंदोलन में किसी किस्म की हिंसा नहीं होनी चाहिए। मगर इन पंचायतों को हल्के में लेकर सरकार न सिर्फ देश के एक बड़े तबके को अपना भावनात्मक शत्रु बना रही है बल्कि इससे भारतीय समाज में असुरक्षा की भावना भी गहराती जा रही है। सरकारें अपनी ताकत के बल पर किसी की भी भावनाओं का कोई लिहाज नहीं कर रहीं। लोकतंत्र में यह सबसे खतरनाक बात होती है कि किसी समुदाय के अंदर यह धारणा गहरा जाए कि अगर वह कमजोर है तो सरकार उसकी नहीं सुनेगी।

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लोकतंत्र की संवेदना लोगों की संख्या की बजाय उनकी समस्या होनी चाहिए। केंद्र सरकार जिस तरह से इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय तक 80 दिनों में किसानों की वैसी सुध नहीं ली कि लगे कि वह उनकी हमदर्द है। भयानक जाड़ा और जाड़े की बारिश में भी किसानों को खुले आसमान के नीचे बैठने को तो मजबूर होना ही पड़ा है, सरकार उन पर दबाव बनाने के लिए जब मन होता है पानी की सप्लायी बंद कर देती है, जब मन होता है बिजली काट देती है। इससे किसानों में ही नहीं बल्कि दूसरे तबकों में भी यह सोच बनती जा रही है कि सरकार को किसानों से जरा भी सहानुभूति नहीं है, वह उन्हें कतई संवेदना की नजरों से नहीं देखती।  यह गलत धारणा है। ऐसी धारणाओं से ही लोकतंत्र कमजोर होता है।

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