नई दिल्ली। महाराष्ट्र में चल रहे सियासी संकट के बीच आशंका जताई जा रही है कि शिवसेना (Shiv Sena) के नेतृत्व वाली महाविकास अघाड़ी सरकार गिर भी सकती है। शिवसेना में दो फांड़ हो गया है। एक गुट का नेतृत्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे कर रहे हैं तो वहीं एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) ने दूसरा गुट बना लिया है। दोनों ही गुट विधायकों के समर्थन को लेकर अलग-अलग दावा कर रहे हैं। एक के बाद एक, कई विधायक सीएम उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) से दूर होते नजर आ रहे हैं। इस बीच अगर विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाता है तो विधानसभा में फ्लोर टेस्ट (Floor Test) की नौबत आ सकती है।
हालांकि बीजेपी अभी इस सियासी संकट की वजह होने से किनारा कर रही है, लेकिन इसमें पार्टी की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। बहरहाल अगर बीजेपी राज्यपाल को चिट्ठी लिखती है और सरकार बनाने का दावा भेजती है तो महाविकास अघाड़ी को बहुमत साबित करना होगा। फ्लोर टेस्ट (Floor Test) में स्पष्ट हो पाएगा कि उद्धव के पास सरकार में बने रहने का अधिकार है या नहीं।
आइए समझने की कोशिश करते हैं कि ये फ्लोर टेस्ट (Floor Test) क्या होता है, कैसे होता है, पूरी प्रक्रिया कौन कराता है और आखिरकार इसके परिणाम क्या होते हैं।
क्या होता है फ्लोर टेस्ट (Floor Test) ?
फ्लोर टेस्ट (Floor Test) को हिंदी में विश्वासमत कहा जा सकता है। फ्लोर टेस्ट के जरिए यह जय होता है कि वर्तमान मुख्यमंत्री या सरकार के पास पर्याप्त बहुमत है या नहीं। चुनाव में जीते हुए विधायक अपने मत के जरिए सरकार के भविष्य का निर्णय करते हैं। (केंद्र सरकार की स्थिति में प्रधानमंत्री को साबित करना होता है कि उनके पास पर्याप्त सांसदों का समर्थन है या नहीं।) अगर मामला राज्य का है तो विधानसभा में फ्लोर टेस्ट होता है, वहीं केंद्र सरकार की स्थिति में लोकसभा में फ्लोर टेस्ट होता है।
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फ्लोर टेस्ट सदन में चलने वाली एक पारदर्शी प्रक्रिया है। इसमें राज्यपाल का हस्तक्षेप नहीं होता। फ्लोर टेस्ट में विधायकों या सासंदों को व्यक्तिगत तौर पर सदन में प्रस्तुत रहना होता है और सबके सामने अपना वोट यानी समर्थन देना होता है।
कौन कराता है फ्लोर टेस्ट (Floor Test) ?
जैसा कि हमने ऊपर बताया कि फ्लोर टेस्ट (Floor Test) में राज्यपाल का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। वे सिर्फ आदेश देते हैं कि फ्लोर टेस्ट कराया जाना है। इसे कराने की पूरी जिम्मेदारी सदन के स्पीकर के पास होती है। अगर स्पीकर का चुनाव नहीं हुआ हो तो प्रोटेम स्पीकर नियुक्त किया जाता है। प्रोटेम स्पीकर अस्थाई होते हैं। जैसा कि चुनाव खत्म होने के बाद, सरकार गठन के समय भी होता है। विधानसभा या लोकसभा के चुनाव के बाद शपथ ग्रहण के लिए भी प्रोटेम स्पीकर बनाया जाता है। बाद में स्थाई स्पीकर बनाए जाते हैं।
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कैसे लिया जाता है फैसला?
फ्लोर टेस्ट (Floor Test) की पूरी प्रक्रिया पारदर्शी होती है और प्रोटेम स्पीकर की निगरानी में की जाती है। सुप्रीम कोर्ट भी अपने एक आदेश में ऐसा कह चुका है। प्रोटेम स्पीकर ही फ्लोर टेस्ट से संबंधित सारे फैसले लेते हैं। वोटिंग की स्थिति में पहले विधायकों की ओर से ध्वनि मत लिया जाता है। इसके बाद कोरम बेल बजती है। और इसके बाद सदन में मौजूद सभी विधायकों को सत्ता पक्ष और विपक्ष में बंटने को कहा जाता है।
विधायक सदन में बने ‘हां या नहीं’ यानी “समर्थन या विरोध’ वाली लॉबी की ओर रुख करते हैं। इसके बाद पक्ष-विपक्ष में बंटे विधायकों की गिनती की जाती है और फिर स्पीकर इसी आधार पर परिणाम घोषित करते हैं। सत्ता पक्ष के पास जादूई आंकड़े के बराबर या अधिक विधायकों का समर्थन हो तो राज्य की सरकार बच जाती है। और अगर जादूई आंकड़े से दूर रही गए तो सरकार गिर जाती है।
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कई बार जब मौजूदा सरकार को यह आभास हो जाता है कि उनके पास पर्याप्त संख्याबल नहीं है या फिर सदन के भीतर खेल हो सकता है और उनके विधायक दूसरे पक्ष में जा सकते हैं तो इस स्थिति में सरकार फ्लोर टेस्ट से पहले ही इस्तीफा दे देती है।