भाजपा के रथ को रोकने के लिए ममता ने विपक्षी नेताओं से एकजुट होने की गुहार की है, लेकिन वह एकता दिख नहीं रही। बंगाल के चुनावी समर में चारों ओर से घिरी ममता बनर्जी ने विपक्षी दलों के नेताओं को पत्र लिखकर सत्ता विस्तार के जयघोष के साथ बढ़ रही भाजपा के राजनीतिक अश्व को रोकने के लिए एकजुट होने का आग्रह किया है। लेकिन मुश्किल यह है कि विपक्षी दलों में एकता नहीं दिख रही। कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी तो जी-जान से उनका सिंहासन ही नहीं, पूरा किला ही ध्वस्त करने में लगे हुए हैं। इसी तरह पुराने दुश्मन वामपंथी दल ममता को मैदान से बाहर करने में लगे हैं।
ममता बनर्जी इस समय अपने नए-पुराने साथियों की चुनावी तलवारबाजी से घायल हैं। उनकी पुकार पर सहानुभूति दिखाने वाले बुजुर्ग सेनापति शरद पवार महाराष्ट्र के सिंहासन के आसपास खड़े पृथ्वीराज चव्हाण जैसे नेताओं के खतरों से चिंतित हैं। गांधी परिवार से पुराने मीठे-खट्टे, कड़वे अनुभवों के पन्ने अब तक विचलित करते हैं। अब एक नए ठाकरे परिवार में महारानी, महाराज, युवराज के पुण्य अथवा पापों का बोझ शरद पवार के हाथों को और कमजोर कर रहा है। वह पहले मोदी दरबार में पेशी दे चुके, हाल में उन्होंने रात के अंधेरे में भाजपा के शाह से रहस्यमयमुलाकात की।
ममता या राहुल को शायद यह नहीं मालूम है कि शरद पवार कबड्डी के खेल और संगठनों से निकलकर राजनीति में उतरे थे। कबड्डी के अच्छे खिलाड़ी सामान्यतः दूसरे पाले में जाकर वापस आने में माहिर होते हैं। तभी तो मराठा क्षत्रप अपने पाले के परिजनों को बचाने में सफल रहे हैं। वह सत्ता के रथ को रोकने के लिए युद्ध नहीं चाहेंगे।
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ममता के पड़ोसी नवीन पटनायक ने हमेशा अपनी सीमाओं और सिंहासन को सुरक्षित रखने का सिद्धांत बना रखा है और दो दशकों से एकछत्र राज कर रहे हैं। संघर्ष का तो सवाल ही नहीं, दिल्ली दरबार के दर्शन भी बहुत जरूरी होने पर करते हैं। वह तो सत्ता के अश्व को रास्ता भी देते रहे हैं। दूसरे पड़ोसी नीतीश अब ममता की पुकार पर कोई नई लड़ाई लड़ने को तैयार नहीं हो सकते हैं। तेजस्वी तेजी से आगे बढे हैं, लेकिन जल्दबाजी खतरों से भरी है।
लालू यादव के मुकदमे, जेल का सिलसिला थम भी जाए, तो भाई-बहनों का हिसाब-किताब तेजस्वी को बिहार के बाहर हाथ-पैर मारने की ताकत नहीं दे सकता है। यही स्थिति कुछ हद तक अखिलेश यादव की है। कांग्रेस और बसपा के साथ समझौतों का परिणाम वह देख चुके हैं। अजित सिंह परिवार पर भरोसे का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।
उधर असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों के नेताओं को क्षेत्रीय हितों की चिंता रहती है। दिल्ली में जो भी राज करे, वे उनके हितों की रक्षा करते रहे हैं। दक्षिण भारत के राज्यों में भी स्थानीय हित सर्वोपरि हैं। इस दृष्टि से नरेंद्र मोदी राज में पूरब, पश्चिम, उत्तर दिशा में जनता का व्यापक समर्थन सत्ता के रथ का स्वागत करता दिख रहा और अश्वमेघ के अश्व को रोकने का सामर्थ्य फिलहाल किसी नेता और दल में नहीं है। वैसे भी 2024 के लोकसभा चुनाव में तीन साल का समय है। इतनी लंबी लड़ाई लड़ने के लिए संगठन और साधन कितनों के पास है?