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उत्तराखंड में  प्राकृतिक आपदा

Natural disaster

Natural disaster

सियाराम पांडे ‘शांत’

पहाड़ का जीवन बेहद कठिन होता है। पहाड़ पर्यटन के लिहाज से तो अच्छे हैं लेकिन पर्वतों और उनकी घाटियों में रहना काफी कष्टसाध्य होता है। इसकी बड़ी वजह यह है कि वह समस्याएं अधिक और सुविधाएं कम होती हैं। उत्तराखंड एक बार फिर प्राकृतिक आपदा की चपेट में हैं। चमोली जिले की ऋषिगंगा घाटी में अचानक बर्फ का पहाड़ टूट गया। इससे अलकनंदा और उसकी सहायक नदियों में सैलाब आ गया है। ऋषिगंगा हाइड़ो प्रोजेक्ट ध्वस्त हो गया है जबकि इस परियोजना में काम कर रहे 150 से अधिक श्रमिकों को अचानक आए सैलाब में बह जाने की खबर है।

रैणी में सीमा को जोड़ने वाला मुख्य मोटर मार्ग भी इस बाढ़ की चपेट में आकर बह गया है। दूसरी ओर रैणी से जोशीमठ के बीच धौली गंगा पर नेशनल थर्मल पॉवर कारपोरेशन का तपोवन बैराज स्थल के आसपास के इलाके में भी कुछ आवासीय भवन बाढ़ की चपेट में आकर बह गए हैं। इस घटना के बाद टिहरी बांध से पानी रोक दिया गया है जबकि श्रीनगर बांध परियोजना से पानी पूरी तरह छोड़ दिया गया है और सभी गेट खोल दिए गए हैं ताकि पहाड़ों से आ रहा पानी बांध को क्षति ना पहुंचा सके। अलकनंदा नदी के मार्ग से सभी परियोजनाएं जिसमें रेल के कार्य के अलावा चार धाम सड़क मार्ग पर योजना के कार्य भी रोक दिए गए हैं। इसके अलावा गंगा नदी में राफ्टिंग को भी रोक दिया गया है आसपास के कैंप खाली करा लिए गए हैं। इस प्राकृतिक आपदा में हताहतों की संख्या अभी और बढ़ सकती है।

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केंद्र और राज्य सरकार के स्र पर राहत और बचाव के प्रयास तेज कर दिए गए हैं। नुकसान कम हो, इस निमित्त प्रयास तेज कर दिए गए हैं। कहीं बांध खाली किए जा रहे हैं तो कहीं नदी के जल प्रवाह को रोका जा रहा है। सरकार के स्तर पर नागरिकों से कहा गया है कि वे घबराएं नहीं। सतर्क रहें और प्रशासन का सहयोग करें। अफवाहों से बचें। सरकार उनके साथ है और हर संभव मदद करने के लिए तैयार है। किसी भी सरकार और उसके मुखिया का यही कर्तव्य भी है कि वह जनता का मनोबल बनाए रखे। सवाल यह है कि राज्य में बार-बार आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से लोगों  को कैसे बचाया जाए। ऐसा क्या किया जाए जिससे कि भूस्खलन और जलप्लावन जैसी प्राकृतियों चुनौतियों का सामना किया जा सके। भूस्खलन और जलप्लावन के हालात कम बनें, इस निमित्त सरकार और देश के नीतिकारों को इस समस्या के कारणों में भी जाना होगा और इसका प्रभावी निवारण भी करना होगा। जिस तरह नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क से निकलने वाली ऋषिगंगा के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र में टूटे हिमखंड से आई बाढ़ के  चलते धौलीगंगा घाटी और अलकनन्दा घाटी में  भारी बाढ़ का मंजर उपस्थित हुआ है।

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ऋषिगंगा और धौली गंगा के संगम पर बसे रैणी गांव के समीप स्थित ऋषिगंगा बिजली परियोजना को भारी नुकसान पहुंचा है, धौली गंगा के किनारे बाढ़ के वेग  से जबरदस्त कटान हो रही है, उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। अलकनंदा और धैलीगंगा घाटी में रहने वाले लोगों के बहुतेरे मकान जलमग्न हो गए हैं, इससे स्थिति की भयावहता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। हरिद्वार में इसी माह से कुंभ का आयोजन है। साधु-संतों के टेंट लगने आरंभ हो गए हैं। इस स्थिति में नदियों में आई बाढ़ का असर महाकुंभ पर भी पड़ सकता है। हरिद्वार में गंगा के किनारे रहने वालों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाया जा श्रहा है। यह और बात है कि अभी बाढ़ का पानी हरिद्वार पहुंचा नहीं है लेकिन उसकी गति को देखते हुए जल्द ही पानी हरिद्वार तक पहुंच जाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। हरिद्वार पानी पहुंच गया तो उसके उत्तर प्रदेश पहुंचने में बहुत ज्यादा देर नहीं लगेगी। केवल उत्तराखंड ही नहीं, उत्तर प्रदेश में भी नदियों के तटवर्ती गांवों के लोगों को सतर्क रहने के निर्देश दिए गए हैं।

उच्चाधिकारियों को भी हालात से निपटने को कहा गया है। चमोली, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, ऋषिकेश और हरिद्वार में सभी घाट खाली करा लिए गए है। तथा आसपास रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थान पर जाने को कहा गया है तथा नदी के तटों पर बसी बस्तियों को खाली कराया जा रहा है। उत्तराखंड में वर्ष 2013  में भी बड़ी प्राकृतिक आपदा आ चुकी है। बाढ़ और भूस्खलन तो वहां की लगभग स्थायी समस्या है। इससे सड़क मार्ग अवरुद्ध होते ही रहते हैं। उत्तराखंड में  होने वाली भारी बरसात हर साल उत्तर प्रदेश और बिहार में भी जलप्लावन का मंजर उपस्थित करती है। इससे जान-माल का नुकसान होता ही रहता है। जून 2013 में, उत्तर भारत में भारी बारिश के कारण हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में बाढ़ और भूस्खलन की स्थिति पैदा हो गई थी।  इससे  हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश  भी प्रभावित रहे। बाढ़ के कारण जान-माल का भारी नुकसान हुआ और बहुत से लोग बाढ़ में बह गए और हजारों लोग बेघर  हुए। इस भयानक आपदा में 5 हजार  से ज्यादा लोग मारे  गए थे। जून 2013 में सामान्य से अधिक वर्षा होने के कारण उत्तराखंड में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। अचानक उत्तरकाशी में बादल फटने के बाद असिगंगा और भागीरथी में जल स्तर बढ़ गया था। निरंतर बारिश  के चलते गंगा और यमुना का जल स्तर भी तेजी से बढ़ गया था।

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उत्तराखंड के केदारनाथ, रामबाड़ा, सोनप्रयाग, चंद्रापुरी और गौरीकुंड में भारी नुकसान हुआ था। कुमाऊं मंडल में पिथौरागढ़ जिला सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ  था। सैकड़ों गांव बाढ़ में बह गए  थे। उत्तराखंड में हुई इस भारी  बरसात का असर उत्तरप्रदेश के सहारनपुर में भी पड़ा। यहां 15 लोगों  की मौत हुई थी। बांध से पानी छोड़े जाने के कारण यमुना नदी से लगे हरियाणा के करनाल, पानीपत, सोनीपत और फरीदाबाद में भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गयी।

उत्तरप्रदेश में शारदा नदी पालिया कलां में खतरे के निशान को पार कर गई थी और बहराइच जिले में महसी क्षेत्र में 44 गांव के लोगों को दूसरी जगह ले जाने के निर्देश दिये गए थे।  इस लिहाज से देखें तो उत्तराखंड की मौजूदा जलप्लावन आपदा से उत्तर प्रदेश और बिहार के इलाके भी प्रभावित हो सकते हैं। बांध परेशानी से बचाने में अगर सहायक हैं तो दूसरी ओर उनकी वजह से बाढ़ की समस्या उत्पन्न भी होती है। इसलिए इस देश के रणनीतिकारों को मध्य का रास्ता अपनाना चाहिए। भूस्खलन की वजह अमूमन ग्लोबल वार्मिंग, अत्यधिक बरसात और पहाड़ पर ज्यादा बर्फ का गिरना होता है और पहाड़ों पर ये तीनों ही कारक मौजूद रहते हैं। सरकार को पहाड़ों पर किसी भी तरह के निर्माण को मंजूरी देने से पूर्व वहां की भू पारिस्थितिकी पर भी विचार करना होगा। पहाड़ और नदियां हमारी धरोहर हैं और धरोहर के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़, प्रकृति का अत्याधिक दोहन मान की मुश्किलें बढ़ाता है। मौजूदा समय राहत और बचाव को वरीयता देने का है लेकिन यही सरकार के प्रयासों की इतिश्री नहीं होती। बेहतर होगा कि सरकार राहत और बचाव के बाद भूस्खलन  और बाढ़ को रोकने जैसे प्रयासों पर भी मंथन करे।

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