सियाराम ‘शांत’
संसद लोकतंत्र का मंदिर है और संविधान लोकतंत्र का सबसे बड़ा धर्मग्रंथ है। यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनेक अवसरों पर कही है। कहने को तो विपक्षी दल भी संविधान के संरक्षण की वकालत करते रहते हैं। संविधान पर आसन्न खतरे को लेकर अपनी आशंका जताते रहे हैं लेकिन एक सच यह भी है कि संविधान और लोकतंत्र के लिए खतरा भी वही उपस्थित करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 10 दिसंबर को संसद भवन की नई इमारत के लिए भूमि पूजन करने वाले हैं। इसमें सभी दलों के नेताओं को आमंत्रित किया गया है। यह और बात है कि विपक्षी दलों ने संसद भवन की नई इमारत के लिए भूमि पूजन में भी विरोध की जमीन तलाश ली है। उनका तर्क है कि वहां भूमि पूजन से पहले सर्व धर्म प्रार्थना होनी चाहिए। कई विपक्षी दलों ने तो सरकार की प्राथमिकता पर भी सवाल उठा दिए हैं। उनका मानना है कि एक ओर तो सरकार कोरोना काल में उपजे अर्थ संकट को देखते हुए नई विकास परियोजनाओं को हरी झंडी नहीं दे रही है। विभागों में नए पदों के सृजन पर रोक लगी हुई है और जो विकास परियोजनाएं चल भी रही हैं, उन्हें समय पर धनराशि नहीं मिल पा रही है, वहीं दूसरी ओर सरकार नए संसद भवन के निर्माण को लेकर लालायित है।
कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा और कांग्रेस नेता राहुल गांधी को भी लगता है कि सरकार अनाप—शनाप खर्च कर रही है लेकिन किसानों, बेरोजगारों के मामले में रुचि नहीं ले रही है। कांग्रेस नेता राशिद अल्वी की मांग है कि अगर प्रधानमंत्री नए संसद भवन के लिए भूमि पूजन कर रहे हैं तो उन्हें इस अवसर पर दूसरे धर्मों के नेताओं को भी आमंत्रित करना चाहिए ताकि देश में रहने वाले हर शख्स को नई संसद भवन के प्रति लगाव महसूस हो। एनसीपी नेता मजीद मेनन का मानना है कि भूमि पूजन से वहां पहले सभी धर्मों के लोगों की प्रार्थना सभा होनी चाहिए। तृणमूल कांग्रेस ने तो नई संसद भवन के भूमि पूजन कार्यक्रम को धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ बता दिया है। अब इन नेताओं को कौन बताए कि महात्मा गांधी ने आजादी की पूरी लड़ाई राम नाम के सहारे लड़ी थी। उस समय जो प्रार्थना सभा होती थी, उसमें यही तो गाया जाता था— ‘ रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम। ईश्वर,अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।’ इस प्रार्थना गीत को देखें तो हम पाएंगे कि राम ही ईश्वर हैं। राम ही अल्लाह हैं तो क्या महात्मा गांधी के शब्दों में यह कहा जाए कि विपक्ष को सन्मति यानी सद्बुद्धि की जरूरत है और अगर ऐसा नहीं है तो विपक्ष के स्तर पर बार—बार ऐसी बात क्यों कही जाती है जो देश में सामाजिक समरसता को बिगाड़े वाली लगती है?
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भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि जब भी हम कोई नया निर्माण करते हैं तो इससे पहले भूमि पूजन करते हैं। भूमि तो सबकी है। उस भूमि का पूजन करने में भला किसी को भी क्या ऐतराज हो सकता है?कहा भी गया है कि ‘ माता भूमि: पुत्रोहं पथिव्या:।’ अर्थात धरती हमारी मां है और हम सब उसके पुत्र हैं लेकिन हम तो अपनी धरती माता को नमन करने से भी कन्नी काट रहे हैं और उससे पूर्व कुछ और करने का विचार कर रहे हैं। जो लोग इस अवसर पर सभी धर्मों के लोगों को बुलाने की मांग रहे हैं, उनकी भावनाओं का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर आजादी के आंदोलन के वक्त गायी जाने वाली प्रार्थना सभा पर लोगों ने अपने—अपने धर्म के हिसाब से ऐतराज किया होता तो शायद अंग्रेज आज भी इस देश पर हुकूमत कर रहे होते। यह देश आजादी को तरस रहा होता।
वैसे भी कांग्रेस, एनसीपी और तृणमूल कांग्रेस ने भूमिपूजन पर जिस तरह के सवाल उठाए हैं,उसका फिलहाल तो कोई औचित्य नहीं था। आजादी के बाद संसद में कितनी बार सर्वधर्म प्रार्थनाएं हुई हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। जिंदगी का अधिकांश हिस्सा संसद में गुजारने वालों को कदाचित ही वहां सर्वधर्म प्रार्थना का ठीक—ठाक अनुमान हो। सर्वधर्म प्रार्थना होनी चाहिए, कम से कम इससे राजनीतिक दलों को सद्बुद्धि तो आएगी। कब क्या बोलना है और क्या नहीं बोलना है, इसकी सद्बुद्धि तो विकसित होगी।
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लीक पर चलना और लीक से अलग हटकर सोचना और करना दो अलग—अलग चीजें हैं। इनके बीच के फर्क को समझना होगा। कुछ बड़े नेताओं के देहावसान पर तो सर्वधर्म सभा होती है। उन्हें तोपों की सलामी दी जाती है लेकिन सर्वधर्म प्रार्थना तो संसद और विधानमंडलों की शुरुआत का अनिवार्य हिस्सा होनी चाहिए। राज संसद की कार्यवाही का समापन राष्ट्रगान से होना चाहिए। इस पर भला किसी को भी क्या ऐतराज हो सकता है। सकारात्मक विरोध सर्वत्र स्वागतयोग्य है लेकिन विरोध के लिए विरोध करने का न कोई मतलब है और न ही इससे देश का किसी भी तरह से हित सधता है। संसद के नए भवन के भूमिपूजन से पूर्व जिस सर्वधर्म प्रार्थना की मांग की जा रही है, उसका स्वरूप क्या होगा? वह महात्मा गांधी वाली ही सर्व धर्म प्रार्थना होगी या अलग—अलग भाषाओं में अलग—अलग ढंग से पढ़ी जाने वाली प्रार्थना। यह भी देखना होगा कि इस सर्वधर्म प्रार्थना में सर्वधर्म कहां है? देश कहां है? अनेकता में एकता का भावबोध कहां है? जिस कांग्रेस, एनसीपी और तृणमूल कांग्रेस को भूमिपूजन में धर्म निरपेक्षता का तिरोभाव नजर आ रहा है, उन्हें यह तो बताना ही चाहिए कि सर्वधर्म प्रार्थना सबसे पहले किस भाषा में होनी चाहिए। हिंदी में, उर्दू में, अंग्रेजी में, उड़िया में, मलयालयम में, तमिल में, कन्नड़ में या उन सैकड़ों भाषाओं में जिसमें लोग अपने इष्ट की आराधना करते हैं।
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रही बात धार्मिक नेताओं को बुलाने की तो ऐसा करने में किसी को भी ऐतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन एक धर्म में कई फिरके होते हैं, किस फिरके के नेता को बुलाएं और किसे छोड़ें। और कदाचित ऐसा करें भी तो यह संख्या सांसदों की संख्या से कहीं अधिक होगी। इस कोरोनाकाल में क्या ऐसा करना संक्रमण को निमंत्रण देना नहीं होगा। संसद में लगभग सभी जाति—धर्म के प्रतिनिधि होते हैं। सांसद अपने आप में अपने समाज का नेता होता है फिर धार्मिक नेताओं के आमंत्रण की मांग क्यों,यह भी तो सुस्पष्ट हो। बकौल कांग्रेसी नेता, जब राजनेताओं की उपस्थिति से विभिन्न धर्मों के लोगों को नए संसद भवन से अपनत्व नहीं हो पा रहा तो धार्मिक नेताओं को बुलाने भर से ऐसा मुमकिन हो जाएगा, यह कैसे कहा जा सकता है?
कांग्रेस को बार—बार ऐसा क्यों लगता है कि निर्णय लेने में सरकार ने जल्दीबाजी कर दी है। सवाल है कि हर सरकार के पास काम करने के लिए केवल पांच साल होते हैं। चीजों को समझने में एक साल चले जाते हैं और अंतिम साल को जाते देर नहीं लगती। अधिकारी भी योजनाओं के क्रियान्वयन में प्रभावी रुचि नहीं लेते। इसलिए उसके बीच के तीन साल में ही अपने सपनों और अपेक्षाओं के अनुरूप देश का निर्माण करना होता है। विपक्ष को सत्तारूढ़ दल के काम में हस्तक्षेप की बजाय देश के विकास की बात सोचनी चाहिए। कुछ बेहतर करने के लिए सरकार को सुझाव देना चाहिए न कि देश की विकास गति को कुंद करने के लिए आंदोलनों का इंतजार करना चाहिए लेकिन इस देश का दुर्भाग्य यह है कि कोई इंतजार करना ही नहीं चाहता और दूसरे से अपेक्षा करता है कि वह इंतजार क्यों नहीं करता। थोड़ी देर ठहरता और विश्राम क्यों नहीं करता। कांग्रेसी अगर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नारे ‘ आराम हराम है’ पर भी चिंतन करते तो उन्हें नए संसद भवन के निर्माण में जल्दीबाजी नहीं, मौजूदा समय की मांग नजर आती।
गौरतलब है कि 10 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस नए संसद भवन के निर्माण के लिए शिलान्यास करने वाले हैं, उस पर 971 करोड़ रुपये की लागत आने वाली है। 64,500 वर्ग मीटर भूमि पर यह बनेगा जो कि पुराने भवन से 17,000 वर्ग मीटर अधिक होगा। इस परियोजना का ठेका टाटा प्रोजेक्ट्स लिमिटेड को दिया गया है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला की मानें तो इसमें लोकसभा सदस्यों के लिए लगभग 888 सीटें होंगी और नए भवन में राज्यसभा सदस्यों के लिए 326 से अधिक सीटें होंगी। लोकसभा हॉल में एक साथ 1,224 सदस्य बैठ सकेंगे।
वैसे भी पुराना संसद भवन अभी मजबूत है। कुछ साल अगर संसद भवन न भी बने तो कोई परेशानी नहीं है लेकिन अगर नया संसद भवन बनाया जा सकता है तो इसमें परेशानी क्या है? देश की सबसे बड़ी अदालत में राजीव सूरी ने परियोजना को भूमि उपयोग बदलाव सहित विभिन्न मंजूरियों के खिलाफ याचिका दायर की है। इस पर सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने पहले शीर्ष अदालत में तर्क दिया था कि परियोजना से उस ‘धन की बचत’ होगी, जिसका भुगतान राष्ट्रीय राजधानी में केन्द्र सरकार के मंत्रालयों के लिए किराये पर घर लेने के लिए किया जाता है। नए संसद भवन का निर्णय जल्दबाजी में नहीं लिया गया और परियोजना के लिए किसी भी तरह से किसी भी नियम या कानून का कोई उल्लंघन नहीं किया गया। परियोजना के लिए सलाहकार का चयन करने में कोई मनमानी या पक्षपात नहीं किया गया और इस दलील के आधार पर परियोजना को रद्द नहीं किया जा सकता कि सरकार इसके लिए बेहतर प्रक्रिया अपना सकती थी। सुप्रीम कोर्ट ने ‘सेंट्रल विस्टा परियोजना’ का विरोध करने वाली लंबित याचिकाओं पर कोई फैसला आने तक निर्माण कार्य या इमारतों को गिराने जैसा कोई काम न करने का आश्वासन मिलने के बाद केन्द्र सरकार को इसकी आधारशिला रखने को मंजूरी दे दी है। इस परियोजना की घोषणा सितंबर, 2019 में हुई थी, जिसमें एक नये त्रिकोणाकार संसद भवन का निर्माण किया जाना है। इसके निर्माण का लक्ष्य अगस्त 2022 तक है, जब देश स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मनाएगा। सरकार ने अनुमान व्यक्त किया है कि साझा केन्द्रीय सचिवालय 2024 तक बनकर तैयार हो जाएगा लेकिन इतने राजनीतिक खुरपेंचों के बीच सरकार अपने मकसद में सफल कैसे होगी, यह भी अपने आप में बड़ा सवाल है।
विकास के लिए सबके साथ और विश्वास की जरूरत होती है लेकिन यहां जिस तरह कदम—कदम पर अवरोध उत्पन्न किए जा रहे हैं, उसे बहुत मुफीद नहीं कहा जा सकता। सत्तापक्ष और विपक्ष लोकतंत्र की दो आंखें हैं, एक भी आंख में किरकिरी पड़ जाए तो देखना मुश्किल होता है। विपक्ष का धर्म है कि वह नाहक विरोध की जगह सार्थक आलोचना करे और सत्तापक्ष को चाहिए कि वह अपने हर काम में विपक्ष का विश्वास हासिल करे। उसके सुझावों पर अमल करे तभी देश आगे बढ़ सकता है। प्रगतिगामी हो सकता है। विपक्ष को अगर ऐसा लगता है कि कहीं उसके नागरिक अधिकारों की उपेक्षा हो रही है तो उसे यह भी सोचना होगा कि उसकी गतिविधियां इस देश के अन्य नागरिकों के नागरिक हितों की संपूर्ति में बाधक तो नहीं हो रही है। ताली दोनों हाथ से बजती है। एक हाथ से कुछ नहीं होने वाला।