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केवल कैलेंडर और विरोध की पॉलिटिक्स कांग्रेस को कोई लाभ नहीं देगी

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सियाराम पांडे ‘शांत’

उत्तर प्रदेश में सत्ता से पैदल हो चुकी कांग्रेस की विफलता अब उसकी नीतियों में भी नजर आने लगी है। इसके लिए वह कई नुक्ते अपना रही है। कई तरह के राजनीतिक टोटके कर रही है। विरोध में भांति-भांति के नवोन्मेष कर रही है लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात जैसा ही रहा है।

इधर दावा किया जा रहा है  कि प्रियंका वाड्रा इस बात का निरंतर प्रयास कर रही है जिससे कांग्रेस को अनाड़ी वाली छवि से बाहर निकालकर उसी खिलाड़ी वाली श्रेणी में शामिल कराया जा सके लेकिन भाजपा की सधी हुई रणनीति के समक्ष कांग्रेस को हर क्षण मुंह की खानी पड़ रही है लेकिन कांग्रेस के लिए खुश होने की एक वजह यह है कि  देश में भाजपा से सर्वाधिक लड़ती अगर कोई पार्टी नजर आ रही है,तो वह कांग्रेस ही है।

उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन वापस हासिल करने की जद्दोजहद गांधी परिवार खूब कर रहा है।   इस क्रम में कांग्रेस नए साल पर हर गांव और शहर तक पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी द्वारा भेजे गए कैलेंडर पहुंचा रही है। कांग्रेस महासचिव और पार्टी की उत्तर प्रदेश प्रभारी प्रियंका वाड्रा ने उत्तर प्रदेश में नए साल के 10 लाख कैलेंडर भेजे हैं। ये कैलेंडर हर गांव और शहर के प्रत्येक वार्ड में बांटे जाने हैं। हर जिले और शहर कमेटी के लिए आबादी के लिहाज से कैलेंडर दिए  गए हैं। कांग्रेस की कोशिश इन कैलेंडरों के जरिए घर-घर पहुंचने की है।  12 पृष्ठ के इस कैलेंडर में प्रियंका के जनसंपर्क कार्यक्रमों और संघर्षों की तस्वीरें हैं।

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कैलेंडर में पहले पेज पर सोनभद्र के उभ्भा जनसंहार के बाद संवेदना व्यक्त करने सोनभद्र पहुंचीं प्रियंका गांधी की तस्वीर आदिवासी महिलाओं के साथ छपी है।  हाथरस कांड के बाद प्रियंका द्वारा पीड़ित  परिवार से मिलने के लिए जाते हुए रास्ते में पुलिस लाठीचार्ज से कार्यकर्ताओं को बचाए जाने की तस्वीर भी इस कैलेंडर में शामिल की गई है।  इसके अलावा कैलेंडर में अमेठी और रायबरेली के साथ-साथ हरियाणा और झारखंड में प्रियंका द्वारा किए गए जनसंपर्क की तस्वीरें छापी गई हैं। कांग्रेस को समझना चाहिए कि कोई भी राजनीतिक दल केवल विरोध के आधार पर आगे नहीं बढ़ता। आगे बढ़ने के लिए उसमें स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना भी होनी चाहिए।  सकारात्मक चिंतन के साथ ही कोई भी व्यक्ति , समाज, राष्ट्र या संस्था आगे बढ़ पाती है।  नीति भी कहती है कि प्रशंसा करने वाले का स्तर ऊंचा हो जाता है और निंदा करने वाला  अपनी ही नजरों में गिरने लगता है।

व्यक्ति जैसा सोचता और करता है, वैसा ही बन जाता है। कांग्रेस विरोधी दल है। इस नाते उसे सरकार का विरोध करना चाहिए।  विरोध सही बिंदु पर किया जाए, सही समय पर किया जाए तो उसका असर होता है। लोहा जब गर्म हो तो उस पर चोट की जाती है और उसे मनचाहा आकार दिया जा सकता है लेकिन अगर कोई ठंडे लोहे को पीटे  तो इससे बात नहीं बनती। अच्छा होता कि इस सूत्र वाक्य को कांग्रेस समझ पाती।  जनता सब समझती है। विरोध में राजनीति नहीं झलकनी चाहिए। कांग्रेस के साथ विडंबना यही है, कि उसका विरोध बाद में दिखता है। राजनीति पहले ही दिखजाती है।  पूर्व सैनिकों को वन रैंक-वन पेंशन मामले में भी कांग्रेस ने सरकार विरोधी  स्टैंड लिया था लेकिन इससे पूर्व सैनिकों को क्या नफा और क्या नुकसान होना है, इसका सटीक विश्लेषण नहीं किया। अभी कुछ दिन पहले वह कोरोना के टीकों के खिलाफ खड़ी नजर आयी।

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कांग्रेस हाल-फिलहाल वीर सावरकर की प्रतिमा उत्तर प्रदेश विधान परिषद में लगने से नाराज है और उसे राजनीतिक विवाद का विषय बनाए हुए है। सच तो यह है कि कांग्रेस आज अगर उत्तर प्रदेश में सत्ता से बाहर है तो इसके पीछे उसकी अपनी नीतियां है। भाजपा जिस सुनियोजित तरीके से अपने काम कर रही है। उसी सुनियोजित तरीके से वह कांग्रेस की नीतियों की बखिया भी उधेड़ रही है।  कांग्रेस  को चाहिए कि वह रणनीति और विकास दोनों ही स्तर पर भाजपा से बड़ी रेखा खीचे।  जिस विकास के आधार पर भाजपा खुद को बढ़ा रही है। कांग्रेस को भी कुछ उसी तरह का रास्ता अख्तियार करना चाहिए। इससे कम पर बात नहीं बनने वाली है। कांग्रेस में नेत्त्व का संकट है और इस बात को लेकर  कांग्रेस में भी मतभेद है। ऐसे में केवल कैलेंडर बांटने की नहीं बल्कि कुछ ठोस करने की जरूरत है। कमजोर नेतृत्व, हर मोर्चे में विफलता और त्वरित निर्णय न ले पाने का तमगा यूपीए के माथे पर दमकता रहा है।

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कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 2004 के चुनाव में जीत के बाद खुद प्रधानमंत्री नहीं बन कर अपने वफादार टेक्नोक्रैट डॉ. मनमोहन सिंह को पीएम का पद  देने की जो गलती की थी, उसका खामियाजा  कांग्रेस आज तक भुगत रही है। कांग्रेस ने बजाय एक मजबूत नेता चुनने के एक मजबूर नेता चुना, वो भी इसलिए ताकि सभी महत्वपूर्ण नियुक्तियों और नीतियों में सोनिया का दखल बना रहे। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह एक विचारक और विद्वान माने जाते हैं. सिंह को उनके परिश्रम, कार्य के प्रति बौद्धिक सोच और विनम्र व्यवहार के कारण अत्यधिक सम्मान दिया जाता है, लेकिन बतौर एक कुशल राजनीतिज्ञ उन्हें कोई सहज नहीं स्वीकार करता। इनके अलावा यदि कांग्रेस प्रशासनिक निपुणता के अलावा राजनैतिक निपुणता वाले को सत्ता सौंपती तो आज की स्थिति कुछ और होती।  भ्रष्टाचार, महंगाई से पिछले कई सालों से जूझ रही जनता की उम्मीदों पर यूपीए सरकार की ओर से केवल बयान ही बयान फेरे गए थे।

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आम जनता महंगाई का कोई तोड़ तलाशने के लिए कहती तो दिग्गज मंत्री यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते कि आखिर हम क्या करें. हमारे पास कोई अलादीन का चिराग तो है नहीं। देश में बढ़ती अराजकता के खिलाफ यूपीए कार्यकाल के दौरान हुए जन आंदोलनों (मसलन अन्ना आंदोलन और निर्भया आंदोलन) को समझने में महानुभाव असफल रहे।  इस बात को तो कांग्रेस सरकार के एक कद्दावर मंत्री भी मान चुके हैं।  एक बार पत्रकारों के साथ बातचीत में वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने माना था कि 2010-11 सबसे कठिन दिन थे।  उन्होंने माना था  कि हमसे कई भूलें हुईं, हमारा लोगों से तालमेल टूट गया था।

इसकी वजह यह है कि 2010-11 में दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में भ्रष्टाचार के विरोध में प्रदर्शन हो रहे थे, उस समय लोगों के गुस्से और बदलते हालातों को यूपीए सरकार सही तरीके से समझ नहीं सकी.। अपने मुख्य विपक्षी दल बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस पार्टी तकनीकी के उपयोग में 2014 के आम चुनाव में काफी पीछे रही।  इस बात को कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं ने भी स्वीकारा। कई नेताओं का कहना है कि उनकी सरकार ने बहुत अच्छा काम किया, लेकिन उसका प्रचार नहीं किया जा सका।  राहुल गांधी के समय-समय पर दिये गये बयान भी कांग्रेस के लिए बिल्ली के गले की घंटी बने। इसलिए जरूरी है कि अगर आगे बढ़ना है तो कांग्रेस पहले सुचिंतित रणनीति बनाए। केवल कैलेंडर और विरोध की पॉलिटिक्स उसे कोई लाभ नहीं देगी।

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