तीन कृषि कानूनों की वापसी को लेकर किसान आंदोलित हैं। विरोध-प्रदर्शन के लिए वे नित नवोन्मेष कर रहे हैं। नए-नए तरीके अख्तियार कर रहे हैं। कहीं वे सिर मुड़ा रहे हैं तो कहीं पोस्टर लगा रहे हैं। टोल प्लाजा फ्री करा रहे हैं। सड़क और रेल मार्ग को जाम करने की रणनीति बना रहे हैं। भूख हड़ताल की धमकी दे रहे हैं तो और भी जो कुछ तौर-तरीके सरकार को घेरने के हो सकते हैं, वे सब अपना रहे हैं।
किसानों ने वायदा किया था कि वे अपने आंदोलन में राजनीति का प्रवेश नहीं होने देंगे लेकिन जिस तरह राजनीतिक दलों ने किसानों के आंदोलन में लाभ के अवसर तलाशे, उससे इस आंदोलन का कमजोर होना लगभग तय माना जा रहा है। किसी भी आंदोलन में बातचीत की गुंजाइश हमेशा रहती है लेकिन किसान नेताओं ने जिस तरह भारत बंद के आयोजन की गलती की, यह जानते हुए भी कि अगले ही दिन सरकार के साथ उनकी बैठक होनी है।
सरकार ने तो पहले ही दिन से वार्ता की संभावनाएं बनाएं रखी लेकिन जब अगर कोई मुंह बंद कर ले और हां व ना की पट्टिका दिखाने लगे तो वार्ता किसी परिणाम तक पहुंचे भी तो किस तरह? जिस आंदोलन की रहनुमाई के लिए मेधा पाटेर आएं और उन तक पहुंचने के लिए धरने पर बैठ जाएं। वाम दल, कांग्रेस, सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना, द्रमुक आदि दल रहनुमाई को आतुर हों, उस आंदोलन के राजनीतिक स्वरूप धारण करने से भला कौन अस्वीकार कर सकता है।
इस आंदोलन से जुड़ा जो पोस्टर चिपकाया गया है उसमें शाहीन बाग के आंदोलनकारियों की भी फोटो है, अगर इस पर कोई मंत्री सवाल उठाता है तो किसान संगठन उसपर किसानों को बदनाम करने का आरोप कैसे लगा सकते हैं? ऐसे में अगर सरकार चौपाल लगाकर अपना पक्ष रखना चाहती है तो उस पर तंज कसा जाना कहां तक उचित है? वह सात सौ चौपाल लगाए या 7 हजार, यह मायने नहीं रखता। मायने यह रखता है कि किसानों के कंधे पर बंदूक रख्कर चला रहे राजनीतिक दलों और स्वयंसेवी संगठनों को वह बेनकाब कर रही है। यही लोकधर्म का तकाजा भी है। केंद्र सरकार ने सही मायने में किसानों के हित की मांग सोची है। उसने अपनी फसल का उचित मूल्य पाने का अवसर दिया है। उसके लिए अन्य प्रदेशों की मार्केट खोली है।
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यह काम तो आजादी के बाद ही किया जाना चाहिए था लेकिन जिन लोगों ने लंबे समय तक किसानों को आत्निर्भरता से दूर रखा, वे अचानक ही उनके हिमायती बन बैठे हैं? जिनके मंत्रियों ने संसद में इसी तरह के कानून की मुखालफत की थी, अगर उनके नेता उसी मामले में किसानोंको गुमराह करें तो इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति भला और क्या हो सकती है? किसान नेता सरकार पर दबाव भी बनाए रखना चाहते हैं और उससे वार्ता भी चाहते हैं लेकिन अपने पूर्वाग्रह का खूंटा टस से मस नहीं होने देना चाहते।
सरकार उनसे पूछ रही है कि वे कानून की कमियां बताएं, सरकार उसमें संशोधन करेगी और किसानोंकी मांग है कि सरकार पहले कानून हटाए तो फिर वे बात करेंगे। कानून ही वापस हो गए तो वार्ता किस बात की? एक ओर तो वे सरकार को न झुकने देने की बात करते हैं, दूसरे पिछल्ले एक पखवारे से वे दिल्ली ही नहीं, पूरे देश के लिए परेशानी का सबब बन रहे हैं। उन्हें अपने हितों की तो चिंता है लेकिन देश पर महंगाई और बेरोजगारी की जो मार पड? रही है, उस बावत तो वे सोचते भी नहीं। यह प्रवृत्ति बहुत मुफीद नहीं है। अच्छा होता कि किसान सरकार पर हठधर्मिता का आरोप लगाने की बजाय अपनी हठधर्मिता छोड़ते। उन लघु एवं मध्यम किसानों के बारेमें सोचते जो बेचते कम और खरीदते ज्यादा हैं, एमएसपी की सुनिश्चितता उनके हितों पर कितनी भारी पड़ेगी, जरा इस पर भी तो विचार कर लेते।
एक कहावत है कि बड़े होने के अहंकार में फूला व्यक्ति दिल से नहीं दिमाग से काम करता है। यह देश दिल से सोचता है। इसलिए अब भी समय है जब किसानों को आत्मंथन करना और देश को रोज किसान आंदोलन के चलते हो रहे अरबों के नुकसान से बचाना चाहिए।