अफगानिस्तान में तालिबान ने तेजी से पांव पसारने शुरू कर दिए गए थे। पिछले चार महीनों के दौरान जंग में 1100 से अधिक अफगान सेना के जवान और करीब चार हजार लोग मारे जा चुके हैं। ऐसे में क्या तालिबान के प्रमुख मौलवी हिब्तुल्लाह अखुंदजादा भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर की बात मान लेंगे।
विदेश मंत्री एस जयशंकर इस समय ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के विदेश मंत्रियों की बैठक में हिस्सा लेने गए हैं। इस बैठक में रूस, चीन समेत सभी देशों के विदेश मंत्रियों की चर्चा का मुख्य केंद्र अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया की स्थापना है। विदेश मंत्री ने इस बैठक में तालिबान को हिंसा के रास्ते से सत्ता पाने की कोशिशों के लिए चेताया है। विदेश मंत्री ने कहा कि इस रास्ते से अच्छे परिणाम नहीं हासिल होने वाले हैं।
उन्होंने तालिबान को नसीहत देते हुए कहा कि अफगान नेताओं को सभी जातियों, धर्मों, समूहों के लोगों को साथ लेकर चलना चाहिए। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान के लोग एक स्वतंत्र, तटस्थ, शांतिपूर्ण, एकजुट और लोकतांत्रिक अफगानिस्तान चाहते हैं। इस लक्ष्य को पाने के लिए अफगानिस्तान के संघर्ष को राजनीतिक बातचीत के जरिए सुलझाया जाना चाहिए। सभी धर्मों, कबीलों की भागेदारी सुनिश्चित होनी चाहिए और यह तय करना होगा कि इस प्रक्रिया में पड़ोसी देशों को आतंकवाद, उग्रवाद, अलगाववाद का खतरा न हो।
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अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकारों को तालिबान द्वारा विदेश मंत्री की अपील मान लेने का कोई ठोस कारण नहीं दिखाई देता। प्रो. एस डी मुनि, रंजीत कुमार और पूर्व विदेश सचिव शशांक का कहना है कि अफगानिस्तान के मोर्चे पर बड़ा खतरा ही दिखाई दे रहा है। अभी कुछ कहना मुश्किल है। प्रो. मुनि कहते हैं कि विदेश मंत्री शांति और लोकतंत्र की बात कर रहे हैं, जबकि तालिबान का यकीन ही जिहाद में है। तालिबान के नेता हाजी हिकमत जहां अफगानिस्तान में अमेरिका के सैनिकों को वापस बुलाने को उसकी हार मान रहे हैं, वहीं उनका और तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन का कहना है कि जिहाद इबादत है। यह जारी रहनी चाहिए। तालिबान दावा कर रहा है कि उसने 20 राज्यों के 421 जिलों वाले अफगानिस्तान के 350 जिलों (85 फीसदी) पर अधिकार कर लिया है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय मीडिया रिपोर्ट्स का कहना है कि यह संख्या कुछ ज्यादा है, लेकिन 200 के करीब जिलों पर तालिबान के सशस्त्र बलों ने कब्जा किया है। इन शहरों को छुड़ाने के लिए अफगानिस्तान सरकार के करीब तीन लाख सुरक्षा बल संघर्ष कर रहे हैं। तालिबान का दावा यह भी है कि वह जल्द ही काबुल को भी अपने कब्जे में ले लेगा।
तालिबान से भारत को क्या खतरा है?
अफगानिस्तान की खूबसूरत वादियों से होते हुए भारत ने मध्य एशिया तक पहुंचने, कारोबार आदि को बढ़ाने का सपना संजोया था। इसे करारा झटका लग सकता है। ताजकिस्तान, किर्गिस्तान, तर्कुमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान जैसे देशों के साथ भारत के व्यापार, कारोबारी रिश्ते में समस्या खड़ी हो सकती है। गैस पाइपलाइन जैसी तमाम योजनाओं को करारा झटका लगने का खतरा दिखाई दे रहा है। भारत ने पिछले 20 साल में वहां की अफगान सरकार से सहयोग का रिश्ता बनाकर तीन अरब डालर से अधिक का निवेश किया है।
अफगानिस्तान में ऊर्जा संयंत्र, बांध का निर्माण, राजमार्ग के निर्माण, स्कूल, भवन, संसद भवन के निर्माण में भारत ने अहम भूमिका निभाई है। अफगानिस्तान के सैनिकों को ट्रेनिंग समेत अन्य तमाम सुविधाएं प्रदान की हैं। भारत की योजना अफगानिस्तान में सड़क और रेल लाइन बिछाने तथा मध्य एशिया तक फर्राटा भरने की थी। ऐसा माना जा रहा है कि अफगानिस्तान में तालिबान के आने के बाद इन सभी कोशिशों को करारा झटका लग सकता है।
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सबसे बड़ा खतरा भारत के सामने तालिबान में अस्थिरता फैलने के बाद आतंकवाद, उग्रवाद, अलगाववाद फैलने का है। इससे वहां अस्थिरकारी ताकतें हावी हो सकती हैं और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई, पाकिस्तान से संचालित आतंकी संगठन इसके सहारे भारत में अस्थिरता की गतिविधियां बढ़ा सकते हैं। गौरतलब है कि अफगानिस्तान में मुल्ला उमर के नेतृत्व में तालिबानी शासन के दौरान ही जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों ने भारतीय विमान IC814 का अपहरण किया था और बदले में भारत को जैश सरगना मौलाना मसूद अजहर समेत तीन खूंखार आतंकी छोड़ने पड़े थे।
भारत क्यों है चिंता में?
भारत सरकार ने पिछले 20 साल में तालिबान और इसके नेताओं से कभी कोई संपर्क नहीं साधा। यहां तक कि 2008-09 में पाकिस्तान की तालिबान के नेताओं से अमेरिकी प्रतिनिधियों की बातचीत जैसे प्रयास का विरोध किया था। भारत ने अच्छे और बुरे तालिबान के तर्क को भी खारिज कर दिया था। भारत सरकार ने अफगानिस्तान में अपने हित और अफगानिस्तान के निर्माण का रास्ता वहां की सरकार के माध्यम से तय किया। भारत की इस कोशिश के सामानांतर पाकिस्तान तालिबान की सरकार को सबसे पहले मान्यता देने वाले देशों में शामिल था। पाकिस्तान ने ही सबसे अंत में तालिबान सरकार के साथ अपने राजनयिक रिश्ते समाप्त किए। विदेश, रक्षा, खुफिया जानकारों की मानें तो तालिबान के तमाम सैन्य कमांडरों और कई शीर्ष नेताओं को पाकिस्तान से सहायता मिलती है। चीन ने भी अफगानिस्तान में अपनी योजना को साकार करने के लिए पाकिस्तान का सहारा लिया है। बताते हैं कि चीन के ही प्रयास से रूस ने पाकिस्तान के साथ संबंध ठीक किए हैं और चीन, रूस, ईरान, पाकिस्तान अपना हित साधने का रोडमैप बना रहे हैं। तुर्की ने अफगानिस्तान में अपनी मौजूदगी बढ़ाने के प्रयासों को तेज कर दिया है। उसने एक तरफ अमेरिका तो दूसरी तरफ पाकिस्तान को साधने की भी कोशिशें तेज की हैं। इस रोडमैप में भारत के पास सबसे विश्वस्त सामरिक साझीदार सहयोगी देश केवल रूस है। बताते हैं कि यह चिंता केवल भारत की नहीं है। उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान की भी है। हालांकि ये अफगानिस्तान के पड़ोसी देश हैं।
यह सवाल पेचीदा है। इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। विदेश मंत्री एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की टीम इसी का जवाब तलाशने में लगी है। इस टीम को पता है कि अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता पर काबिज हुआ तो हालात 90 के दशक से कई गुना अधिक खराब हो सकते हैं। अफगानिस्तान और तालिबान से संबंधों तथा हितों के मामले में भारत को ऐसी स्थिति में दूसरे देशों पर अधिक निर्भर रहना पड़ सकता है। सऊदी अरब, यूएई,रूस, ईरान अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं।