सियाराम पांडे ‘शांत’
किसान नेताओं को सरकार ने जो सुझाव भेजे हैं, वे काफी तर्कसंगत और व्यावहारिक हैं। किसानों के इस डर को बिल्कुल दूर कर दिया गया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म होनेवाला है। वह खत्म नहीं होगा। सरकार इस संबंध में लिखित आश्वासन देगी। कुछ किसान नेता चाहते हैं कि इस मुद्दे पर कानून बने। यानी जो सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य से कम पर खरीदी करे, उसे जेल जाना पड़े।
ऐसा कानून यदि बनेगा तो वे किसान भी जेल जाएंगे जो अपना माल निर्धारित मूल्य से कम पर बेचेंगे। क्या इसके लिए नेता तैयार हैं? इसके अलावा सरकार सख्त कानून तो जरूर बना दे लेकिन वह निर्धारित मूल्य पर गेहूं और धान खरीदना बंद कर दे या बहुत कम कर दे तो ये किसान नेता क्या करेंगे ? ये अपने किसानों का हित कैसे साधेंगे? सरकार ने किसानों की यह बात भी मान ली है कि अपने विवाद सुलझाने के लिए वे अदालत में जा सकेंगे याने वह सरकारी अफसरों की दया पर निर्भर नहीं रहेंगे।
यह प्रावधान तो पहले से ही है कि जो भी निजी कंपनी किसानों से अपने समझौते को तोड़ेगी, वह मूल समझौते की रकम से डेढ़ गुना राशि का भुगतान करेगी। इसके अलावा मंडी-व्यवस्था को भंग नहीं किया जा रहा है। जो बड़ी कंपनियां या उद्योगपति या निर्यातक लोग किसानों से समझौते करेंगे, वे सिर्फ फसलों के बारे में होंगे। उन्हें किसानों की जमीन पर कब्जा नहीं करने दिया जाएगा। इसके अलावा भी यदि किसान नेता कोई व्यावहारिक सुझाव देते हैं तो सरकार उन्हें मानने को तैयार है।
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अबतक कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर और गृहमंत्री अमित शाह का रवैया काफी लचीला और समझदारी का रहा है लेकिन कुछ किसान नेताओं के बयान काफी उग्र हैं। क्या उन्हें पता नहीं है कि उनका भारत बंद सिर्फ पंजाब और हरयाणा और दिल्ली के सीमांतों में सिमटकर रह गया है? देश के 94 प्रतिशत किसानों का न्यूनतम समर्थन मूल्य से कुछ लेना-देना नहीं है। बेचारे किसान यदि विपक्षी नेताओं के भरोसे रहेंगे तो उन्हें बाद में पछताना ही पड़ेगा। राष्ट्रपति से मिलनेवाले प्रमुख नेता वही हैं, जिन्होंने मंडी-व्यवस्था को खत्म करने का नारा दिया था। किसान अपना हित जरूर साधे लेकिन अपने आप को इन नेताओं से बचाएं। गैर राजनीतिक स्वरूप के साथ शुरू किसान आंदोलन को 24 पार्टियों ने समर्थन देकर इसे राजनीतिक रंग दे दिया है।
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इन पार्टियों के साथ आने से किसान आंदोलन को बड़ा नुकसान हुआ। जिस आन्दोलन के साथ और पक्ष में विचारधारा से ऊपर उठकर लोग जुड़ रहे थे, वे अब विपक्ष की भूमिका के कारण छिटकने लगे हैं। भारत बंद में विपक्ष के कूदने के साथ अब आन्दोलन में मोदी विरोध साफ दिखने लगा है। इसके साथ ही एक बड़ा किसान तबका आन्दोलन से दूरी बना रहा है। यही आंदोलन का सबसे बड़ा नुकसान है। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलन कर रहे किसानों के भारत बंद को सम्पूर्ण विपक्ष ने समर्थन दिया है। राजग सरकार के खिलाफ काफी समय से लामबंद होने का मौका तलाश रहे विपक्ष को किसान आन्दोलन अवसर के रूप में मिल गया है। खुद की राजनीतिक जमीन खो चुके अधिकांश विपक्षी दलों ने किसानों की ताकत का मोदी विरोध के लिए इस्तेमाल करने के लिए भारत बंद को समर्थन कर दिया। बंद को समर्थन देने वाले कांग्रेस से लेकर वामपंथी तक कुल 24 दल शामिल रहे। गैर राजनीतिक स्वरूप के साथ 26 नवंबर से शुरू हुआ आंदोलन 13 दिन पूरे होते-होते राजनीतिक रंग में रंग गया है। किसान संगठनों ने भारत बंद का ऐलान किया तो इसमें सभी विपक्षी कूद पड़े। इन्हें किसानों की समस्याओं और उनकी मांगों से ज्यादा लेना देना नहीं है, बल्कि मोदी और भाजपा का विरोध इसके मूल में है।
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कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन के नेतृत्व में बने दूसरे किसान आयोग की संस्तुतियों और लंबे समय से मंडी समितियों के आधिपत्य से किसान को बाहर निकालने की चल रही मांग के बाद भारत सरकार ने कृषि सुधार का फैसला लिया था। इसके तहत 5 जून को भाजपा के नेतृत्व की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने अध्यादेश लाकर तीन कृषि कानून लागू किये थे। कृषि सुधार के लिए लाये तीन कृषि कानून में से पहला कानून मण्डी समिति के आधिपत्य को समाप्त करते हैं तथा किसान को कहीं भी उपज बेचने की आजादी देता है। दूसरे कानून में किसानों को खेती में ठेकेदारी प्रथा यानी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को वैधानिक स्वरूप देता है। तीसरा कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम के प्रावधानों को लेकर है। तीनों कानूनों में कोई भी बात किसान के विरोध या हानि पहंचाने वाली नहीं है। लेकिन, किसान संगठनों के बीच कुछ लोगों ने सुनियोजित रूप से भ्रम फैलाने की कोशिश की, जिसमें वे सफल भी हुए हैं। पांच जून को लाये गए आध्यादेश के बाद 18 और 20 सितंबर को सरकार ने क्रमशः राज्यसभा और लोकसभा में विधेयक लाकर इन्हें विधिवत कानून रूप दे दिया।
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पांच जून को अध्यादेश आने के बाद और 18 सितंबर तक विधेयक पारित होने तक इन कानूनों पर कोई विशेष प्रतिक्रिया देश में नहीं हुई। कहीं कोई विरोध भी सुनने को नहीं मिला। लेकिन,संसद में विधेयक पारित होने के साथ ही कुछ कृषि विशेषज्ञों विशेषकर लेखक और विचारक देवेन्द्र शर्मा और पीलीभीत के किसान नेता पूर्व विधायक सरदार बीएम सिंह ने इन कानूनों पर कुछ आपत्तियां कीं। इन आपत्तियों पर लेख और सोशल मीडिया में चर्चा के बाद यह बात पंजाब में सबसे ज्यादा चर्चा में आयी। यहां कांग्रेस की सरकार ने इस विरोध को हवा दी। यहां तक कि कानूनों को प्रदेश में लागू नहीं करने के लिए विधेयक पारित कर दिया और मंजूरी के लिए राष्ट्रपति को भेज दिया। पंजाब में कानूनों के खिलाफ रैली निकाली गई। स्वयं राहुल गांधी और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह किसानों की ट्रैक्टर रैली में शामिल हुए। दोनों ने नेता सोफा लगे ट्रैक्टर पर बैठे। इन कानूनों का विरोध सबसे ज्यादा पंजाब में ही हुआ।
इस आन्दोलन को बल मिला योगेन्द्र यादव के सक्रिय होने के बाद। योगेन्द्र यादव ने स्वराज यात्रा के दौरान इन कानूनों की खामियां किसानों को बतायीं। 32 संगठनों की एक किसान संघर्ष समिति बनी। इस समिति ने ही 26 नवंबर को दिल्ली कूच का फैसला किया था।
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दिल्ली में ट्रैक्टर ट्रालियों के साथ घुसने के प्रयास कर रहे पंजाब के किसानों को पहले ही दिन यानी 26 नवंबर को सिन्दु बार्डर पर रोक दिया गया था। वहीं उन्होंने धरना दिया। सरकार किसानों को बुराड़ी मैदान जाकर आन्दोलन करने को कह रही थी किन्तु किसान जंतर-मंतर जाने पर अड़े थे। इसलिए किसानों को बार्डर पर ही धरना देना पड़ा है। धरने की सफलता तथा हरियाणा व पश्चिम उत्ततर प्रदेश के जाटों की खाप पंचायतों का समर्थन मिलने के बाद आन्दोलन ने गति पकड़ ली। सरकार ने पांच दौर की बातचीत की लेकिन कोई समाधान नहीं निकला, किसान तीनों कानून रद्द कराना चाहते हैं। सरकार कानूनो में कुछ संशोधन करने को तैयार है लेकिन किसान मानने को तैयार नहीं हैं। अपनी मांगों पर अड़े किसानों ने 8 दिसंबर के भारत बंद का आह्वान किया।इसे एक अवसर मानकर राजनीतिक दल किसान आंदोलन के समर्थन में कूद गए। कांग्रेस जो पहले से ही आन्दोलन को समर्थन दे रही थी खुलकर सामने आ गई। इसके साथ ही यूपीए के सभी दलों के साथ दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी समर्थन दिया। यह स्ििात विपक्ष को संजीवनी देने के लिए तो ठीक है लेकिन इससे किसानों के आंदोलन को जबर्दस्त झटका लगा है।