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क्षमा दें या दंड, कर्मभोग टलता नहीं है

वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण

वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण

सियाराम पांडेय ‘शांत’

क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को अपराध। यह बात जितनी ठीक है, उतना ही बड़ा सच यह भी है कि क्षमा करने से समाज में सीधा होने का संदेश जाता है। गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि ‘अतिहिं सिंधाइहिं ते बड़ दोषू।’ अर्थात अत्यंत सरल होना भी व्यक्तित्व का सबसे बड़ा दोष है। दंड जरूरी है। इसके बिना लोग उदंड हो जाता है। क्षमा दे या दंड,कर्मभोग टलता नहीं है।

क्षमा याचना करना या न करना व्यक्ति का अपना विवेक है। उसे इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता  लेकिन किसी से भी क्षमा मांगने की जरूरत ही क्यों पड़े, विचार तो इस पर होना चाहिए। वैसे भी क्षमा मांगने से कोई छोटा नहीं हो जाता। नीति कहती है कि जो झुकता है, वही भारी होता है और जो अड़ जाता है, वह टूटकर बिखर जाता है। वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण अपने आपत्तिजनक ट्वीट को लेकर उच्च न्यायालय द्वारा अवमानना के दोषी करार दिए जा चुके हैं। अदालत ने उन्हें  24 अगस्त तक  बिना शर्त क्षमा मांगने का अवसर दिया है लेकिन प्रशांत भूषण अपने बगावती रुख पर अड़े हुए हैं। प्रशांत भूषण का तर्क है कि उन्होंने अपने दोनों ट्वीट में जो कुछ भी लिखा है, वह आवेश आधारित नहीं है। उन ट्वीट के लिये क्षमा याचना करना धूर्तता और अपमानजनक होगा, जो मेरे वास्तविक विचारों को अभिव्यक्त करते थे और करते रहेंगे।

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सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अगर उन्हें अपनी गलती का अहसास होगा तो वह बहुत नरम हो सकती है। इसका मतलब साफ है कि पीठ भी प्रशांत भूषण को सजा देने के नहीं बल्कि उन्हें उनकी गलती का अहसास कराने को लेकर गंभीर है। लेकिन जिसे मतिभ्रम हो जाए, उसका क्या? प्रशांत भूषण भी अपनी जिद पर अड़े हुए हैं। कह रहे हैं कि वे अदालता से दया और उदारता दिखाने की अपील नहीं करेंगे। वे अदालत द्वारा दी जाने वाली सजा को सहर्ष स्वीकार करेंगे और यही एक नागरिक का सर्वाेच्च कर्तव्य भी है।

सर्वोच्च न्यायालय अवमानना के लिए दोषी ठहराए गए वकील प्रशांत भूषण की सजा के मामले की  दूसरी पीठ में सुनवाई के  अनुरोध को ठुकरा चुकी है बल्कि इसे अनुचित कृत्य भी करार दे चुकी है। न्यायालय में भूषण के वकील ने तो यहां तक कहा कि अगर इस मामले में अदालत फैसला इस समय टाल देती है तो आसमान नहीं टूट जाएगा। वहीं अदालत ने आश्वस्त किया था कि निर्णय पर अमल पुनर्विचार याचिका पर अमल तक नहीं होगा। उसने प्रशांत भूषण को विकल्प भी दिया कि अगर वे माफी मांग ले तो अदालत उनके साथ नरमी बरत सकती है। बहुधा ऐसा होता नहीं है। चूंकि यह हमपेशा व्यक्ति से जुड़ा मामला है। सामान्य व्यक्ति के साथ भी ऐसा ही हो, जरूरी नहीं।

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देश के सैकड़ों वकीलों और जजों ने सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह किया है कि वह प्रशांत भूषण को सजा न दे। यही नहीं, देश के अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने भी सर्वोच्च न्यायालय से कुछ इसी तरह का आग्रह किया है और यह भी कहा है कि प्रशांत भूषण ने सैकड़ों अच्छे काम किए हैं। यह और बात है कि सर्वोच्च न्यायालय उनकी इस राय से इत्तेफाक नहीं रखता। उसका कहना है कि सौ अच्छे कार्य दस अपराध करने का अधिकार प्रदान नहीं करते। अच्छे काम करने के लिए ही तो मानव तन मिला है लेकिन अपराध करने की छूट किसी को भी नहीं होनी चाहिए।

आलोचना करते वक्त हमें उसकी मर्यादा का भी ज्ञान होना चाहिए। विरोध के लिए आलोचना की जाए और जनहित में आलोचना की जाए, इसका फर्क तो दिखता ही है। अगर प्रशांतभूषण दुष्यंत कुमार को ही पढ़ लेते कि ‘मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है’ तो भी वे कोर्ट में हो रही तुक्का—फजीहतों से बच जाते। रहीम ने तो खुले आम लिखा है कि जो कुछ भी कहा जाए, उसे पहले हृदय के तराजू पर तौल लिया जाए। ‘हिए तराजू तौलि के तब मुख बाहर आनि।’  इसमें संदेह नहीं कि अदालत के खिलाफ आवाज तो वही उठा सकता है जिसका अदालत से  रोज का साबका हो। प्रशांत भूषण सजा दिलवाते भी हैं और अपने मुवक्किलों को सजा से राहत भी दिलाते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इस देश के हर नागरिक को है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि ऐसी बातें कही जाएं जो दूसरों को आहत करे।

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न्याय की आसंदी पर बैठा व्यक्ति सम्मान ही तो चाहता है। उसका अपमान व्यवस्था का निरादर है। किसी निर्णय पर सहमति और असहमति हो सकती है लेकिन इसकी अभिव्यक्ति शालीनता के दायरे में ही की जानी चाहिए। शीर्ष अदालत ने प्रशांत भूषण से यह भी पूछा है कि उन्होंने वाचिक मर्यादा की लक्ष्मण रेखा क्यों लांघी? शीर्ष अदालत ने 14 अगस्त को प्रशांत भूषण को न्यायपालिका के प्रति अपमानजनक दो ट्वीट के लिये आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराया था। अदालत की मानें तो उनके ट्वीट को  जनहित में न्यायपालिका की कार्यशैली की स्वस्थ आलोचना के लिये किया गया नहीं कहा जा सकता। न्यायालय की अवमानना के जुर्म में उन्हें अधिकतम छह महीने तक की कैद या दो हजार रुपए का जुर्माना अथवा दोनों की सजा हो सकती है। हालांकि एक जज ने यह भी कहा है कि उन्होंने अपने अपने 24 साल के न्यायाधीश काल में किसी को भी अवमानना का दोषी नहीं ठहराया है। यह इस तरह का मेरा पहला आदेश है। इसका मतलब है कि न्यायालय भी विवश है और इस तरह की विवशता की स्थिति बनी क्यों? यह विचार का विषय है। वकालत बहुत ही पवित्र पेशा है। इसमें राजनीति का प्रवेश उचित नहीं है। प्रशांतभूषण को वकालत और राजनीति दोनों को अलग रखना चाहिए। संस्कृत में वकील को वाक्कील कहा गया है। इसका मतलब जो वाणी का कीलन करे। न्यायपालिका पर अंगुली न उठे, इसके लिए जजों को भी सतर्क रहना चाहिए और वकीलों को भी। न्याय मंदिर की गरिमा का ख्याल रखना सबकी जिम्मेदारी है। जब तक इस पर मंथन नहीं होगा, हालत बिगड़ेंगे ही।

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