सर्दियों में पशमीना शॉल की सबसे ज्यादा मांग रहती है। पशमीना राजसीवैभव, आराम, विलासता का पर्यावाची माना जाता है। पशमीना वास्तव में पारसी शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ ‘‘ऊन से बनाया गया’’ होता है। पशमीना ऊन विभिन्न प्रकार की बकरियों की प्रजाति से प्राप्त की जाती है। पशमीना ऊन लद्दाख में चांग थांग, कारगिल की मालरा हिमाचल प्रदेश की चंगथंगी, चिगू और नेपाल की चयनगरा बकरियों की प्रजाती में मुख्यतः पाई जाती है। हिमाचल प्रदेश में पशमीना ऊन का इतिहास तीसरी शताब्दी से माना जाता है।
इतिहास पर नज़र दौडा़ऐं तो 7वीं शताब्दी में किन्नौर के क्षेत्रों में पशमीना ऊन के उत्पादन का रिकार्ड दर्ज है। उस समय हिमाचल की पश्मीना शॉल/स्टोल मैदानी इलाकों के पटियाला, जयपुर, लखनऊ सहित अनेक राजघरानो को ऊँचे दरों पर बेची जाती थी। हालांकि हिमाचल में पशमीना के व्यवसायिक या वाणिज्यक उत्पादन के बड़े पैमाने का कोई पौराणिक इतिहास दर्ज नहीं है लेकिन हिमाचल प्रदेश में पशमीना की गुणवत्ता को विश्व स्तर पर सराहा गया है तथा हिमाचल की पश्मीना शॉलों को राजसी परिबारों और अमीर लोगों को ही मुख्यता बेचा जाता था।
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हिमाचल प्रदेश सरकार तथा विभिन्न एजंसियों के साझा प्रयासों से हिमाचल में उत्पादन होने वाली गर्म फाईबर की मुलायम पशमीना शाल, दुपट्टा तथा ओढ़नी की मांग तेजी से बढ़ रही है तथा हिमाचल प्रदेश पशमीना उत्पादक राज्यों के मानचित्र पर तेज़ी से उभर रहा है।
हिमाचल प्रदेश में पशमीना का उत्पादन चन्यांगी तथा चेरु प्रजाति की भेड़ों से प्राप्त की जाती है जो कि राज्य के चम्बा, लाहौल, किन्नौर के ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में पाली जाती है। राज्य में बनने वाली पशमीना शाल की गुणवत्ता के मद्देनज़र इसे राजसी तथा घनाष्य लोगों की पहली पसंद माना जाता है।
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हिमाचल प्रदेश सरकार राज्य में पश्मीना उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए निरन्तर प्रयासरत है। राज्य में वर्तमान में एक हजार किलो ग्राम पश्मीना ऊन का उत्पादन हो रहा है और अगले पांच वर्षों में इसे दोगुना करने का लक्ष्य है।
इस समय राज्य में केंद्र प्रायोजित राष्ट्रीय पशुधन मिशन के तहत प्रदेश के बर्फीले क्षेत्रों में पश्मीना के उत्पादन को बढ़ाने के लिए एक महत्वकांक्षी योजना शुरू की गई है जिसके अन्तर्गत इन क्षेत्रों में भेड़, बकरी पालक गरीब श्रेणी के बीपीएल परिवारों को पश्मीना प्रदान करने वाली चंगथंगी और चिगू नस्लों की लगभग 638 बकरियों का वितरण किया जा रहा है।
राष्ट्रीय पशुधन मिशन के तहत पश्मीना के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए लाहौल, स्पीतिए पांगी घाटी और किन्नौर जिला के बीपीएल परिवारों को चंगथंगी बकरियों की 29 इकाइयों में लगभग प्रत्येक इकाई में 10 मादा हैं। एक नर चिगू बकरी की 29 इकाइयाँ, 10 मादा और एक नर को वितरित किया जाएगा। प्रत्येक इकाई के लिए राज्य का पशु पालन विभाग लगभग सत्तर हजार रुपये खर्च करेगा।
बकरियों की 90 प्रतिशत लागत केन्द्रीय सरकार द्वारा वहन की जाएगी। जबकि राज्य सरकार और व्यक्तिगत लाभार्थी शेष दस प्रतिशत लागत को समान अनुपात में साझा करेंगे। इस प्रकार पांच प्रतिशत लागत राज्य सरकार और व्यक्तिगत लाभार्थियों द्वारा साझा की जाएगी। बकरियों के वितरण की निविदा प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और इस वित्त वर्ष के दौरान लक्षित परिवारों को पशुधन वितरित किये जाएंगे।
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वर्तमान में मुख्य रूप से दारचा, योचि, रारिक – चीका गांबों र और लाहौल की मयाड़ घाटी, स्पीति के हंगांग घाटी लांगजा क्षेत्र और किब्बर तथा जिला किन्नौर के नाको, नामग्या और लिओ गांव के अलावा चंबा जिला के पांगी घाटी के कुछ क्षेत्रों में पश्मीना का उत्पादन किया जाता है।
राज्य में लगभग दस संगठित शॉल निर्माण इकाइयां हैं, जो पश्मीना ऊन के उत्पाद बनाती हैं। जो शिमला जिला के रामपुर बुशहरए मंडी जिला के सुंदरनगर और मंडी कुल्लू जिला के शमशी और हुरला तथा किन्नौर जिला के सांगला और रिकॉर्ड पिओ में स्थापित हैं।
लगभग 90 प्रतिशत पश्मीना ऊन का उपयोग शॉल/स्टॉल और मफलर बनाने के लिए किया जाता है और 10 प्रतिशत का उपयोग ट्वीड के कोट जैसे अन्य उत्पाद बनाने में किया जाता है। राज्य में पश्मीना ऊन उत्पादकों द्वारा मुख्य रूप से खुदरा बिक्री और निजी खरीद के माध्यम से बेची जाती है। प्रदेश की सफेद और ग्रे रंग की पश्मीना ऊन का उपयोग मुख्य रूप से राज्य की संगठित शॉल निर्माण इकाइयों में किया जाता है।
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प्रदेश में पश्मीना उत्पादक अपनी ऊन की लाभकारी कीमत प्राप्त कर रहे हैं और वर्तमान में खरीदार एक किलो कच्ची पश्मीना ऊन के लिए 3500 रुपये प्रदान कर रहे हैं। ऊन की अच्छी गुणवत्ता तथा अंतरराष्ट्रीय और घरेलू बाजार में पश्मीना उत्पादों की मांग बढ़ने के साथ इनके मूल्य में वृद्धि भी हो रही है।
हिमाचल प्रदेश के हथकरघा क्षेत्र के संगठित और गैर संगठित क्षेत्र में लगभग 10 से 12 हजार बुनकर कार्य कर रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में वर्तमान में बकरियों की संख्या लगभग 2500 है और प्रदेश सरकार इनकी संख्या बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है।
इस समय राज्य में लगभग पाँच हज़ार लोग पशमीना व्यवसाय से जुड़े हैं, जिनमे भेड़ बकरी पालने वाले, ऊन संसाधक, मजदूर, व्यापारी आदि शामिल हैं। इस उद्योग से जुड़े अधिकतर लोग हिमालयी क्षेत्र से सम्बन्धित हैं तथा इस उद्योग का सीधा लाभ ज़मीन से जुड़े उद्यमियों खासकर राज्य के दुर्गम क्षेत्रों मे रहने वाले किसानों को मिल रहा है। राज्य में पशमीना उत्पाद को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकार ने एक केन्द्रीय प्रायोजित परियोजना शुरु की है।
पशमीना उद्योग से प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में जुड़े सभी हिस्सेदारों को समग्र रूप से लाभ मिल सके तथा राज्य में उत्पादित होने वाले पशमीना का राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय मार्किट पर एक अलग पहचान स्थापित की जा सके लेकिन पशमीना उद्योग के लिए चुनौतियां भी पहाड़ जैसी हैं। मैदानी इलाकों में टैक्स्टाईल/ऊन उद्योग द्वारा सिंथेटिक फाईबर/सस्ती ऊन से बनी शॉल को कुल्लु, शिमला, डल्हौज़ी में पशमीना बताकर भेजा जाता है जिससे विशुद्ध पशमीना को मार झेलनी पड़ती है क्योंकि ग्राहक सस्ते उत्पाद को प्राथमिकता देता है। इसलिए राज्य सरकार को पशमीना की विशिष्ट पहचान स्थापित करने के लिए अलग मोर्चे पर भी विजय दर्ज करनी होगी।
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इस समय यह भी जरूरी है कि हिमाचली पशमीना को अलग ट्रेड मार्क से पंजीकृत किया जाए तथा राज्य सरकार को शिमला, मनाली में लैबोरेटरी स्थापित करनी चाहिए तांकि पर्यटक पशमीना शाल की गुणवत्ता जांच सकें तथा यह सुनिश्चित कर सकें कि उसने विशुद्ध पशमीना खरीदा है। राज्य सरकार को पशमीना निर्यातकों तथा घनाष्य ग्राहकों को पशमीना में सम्भावित नकली उत्पादों/कृत्रिम पशमीना के बारे में भी शिक्षित करने की जरूरत है।
हालांकि अभी तक हिमाचली पशमीना का राज्य की सकल घरेलु उत्पाद में कोई बड़ी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी नहीं है लेकिन पशमीना उद्योग आगामी सालों में हिमाचल को विशिष्ट पहचान प्रदान करवा सकता है। इस समय हिमाचल प्रदेश को राष्ट्रीय मानचित्र पर सेब, ऊनी शालों तथा पर्यटन के लिए जाना जाता है तथा यह आशा की जानी चाहिए कि हिमाचल आगामी सालों में पशमीना उत्पादक राज्य के रूप में एक नई पहचान स्थापित करेगा।