भारत में लाशों पर राजनीति का खेल बहुत पुराना है। किसी की मौत का सहानुभूतिक लाभ उठाना कुछ लोग बेहतर जानते हैं। फिलहाल देश महामारी से जूझ रहा है। पहले जो लोग महामारी और टीके के वजूद पर सवाल उठा रहे थे।उसकी गुणवत्ता पर सवाल उठा रहे थे,वे अचानक टीकोंकी कमी का मुद्दा उठाने लगे। कुछ तो यहां तक कहने लगे कि वे भाजपाई टीका नहीं लगवाएंगे। अब वही देश भर के लोगों को टीका लगाने और उसकी अवधि पूछने लगे हैं। कोरोना से प्रदेश में लोगों की मौतों की संख्या बढ़ी तो राजनीतिक दलों ने कहा कि सरकार लाशों का अंतिम संस्कार तक नहीं करा पा रही है और जब सरकार ने श्मशान घाटों की संख्या बढ़ानी शुरू की। उसके लिएशेड बनवाने शुरू किया तो विपक्ष ने उस पर भी तंज कसा।
हमीरपुर में यमुनामेंजब पहली बार सात शव मिले तब भी और जब बलिया के बाद गाजीपुर, वाराणसी और चंदौली जिले में गंगा में अधजले शव मिले तब भी विपक्ष सरकार पर संवेदनहीनता का आरोप लगा रहा है। उन्नाव के बक्सर घाट पर बुधवार की रात आई आंधी और बरसात में रेत से बाहर झलकने लगे। इसे लेकर राजनीति गरमा गई है। प्रशासन जहां पूरे मामले पर रेत डालने में जुटा हुआ है, वहीं विपक्ष को इस बहाने सरकार को घेरने का मौका मिल गया है। यह और बात है कि नदियों में शवों के मिलने के बाद से सरकार की स्थिति असहज हुई है। उसने पुलिस और प्रशासन को यह ताकीद करने के निर्देशदिए है कि किसी भी सूरत में गंगा-यमुनाजैसी पवित्र नदियों में शव प्रवाहित न होने पाएं। इस बावत सरकार साधु-संतों को भी समझा रही है । भारत में गणितीय मॉडल का फेल होना यहां के गणित और विज्ञान का मजाक बनाना है और इसके लिये जिम्मेदार हैं आंकड़े। मैथमेटिकल मॉडल के लिये आवश्यक आंकड़े सीधे वैज्ञानिक या गणितज्ञों की देखरेख में नहीं जुटाये जाते, बाहर से लिये जाते हैं। अधिकतर इनका स्रोत सरकारी एजेंसियां होती हैं।
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कहते हैं झूठ के तीन फार्म होते हैं झूठ, सफेद झूठ और सरकारी आकड़े। तब जब आंकड़े असत्य, अविश्वसनीय, आधारहीन हों अवैज्ञानिक तौर पर जुटाये हों तो उनसे निकले नतीजे सही कैसे हो सकते हैं? बात महज जनविश्वास के खोने की ही नहीं है। न ही इस बात का दर्द कि विदेशों में हमारे आंकड़े और व्यवस्था की पारदर्शिता और विश्वसनीयता के साथ साथ हमारे गणितीय मॉडल उसके आंकलन तथा वैज्ञानिक क्षमता का मजाक बनता है। इन सबसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। हमें चिंता तो इस बात की होनी चाहिये कि हम इतने बड़े बड़े पैमाने पर आंकड़े छिपाकर अपने ही देश, समाज उसके स्वास्थ्य और भविष्य के साथ आत्मघाती खिलवाड़ कर रहे हैं। अगर आंकड़े संदूषित असत्य होंगे तो नि:संदेह हमारी योजनाएं, रणनीतियां, बजट आवंटन से लेकर तमाम तरह की तैयारियां उतनी ही खोखली होंगी, उनके बेअसर और नाकाम होने की आशंका उतनी ही ज्यादा होगी। वह चाहे कोरोना के पीक आने उससे राहत मिलने की बात हो या अगली लहर आने की आशंका का आंकलन अथवा यह पता लगाना कि कोई लहर जान माल का किस कदर नुकसान पहुंचा सकती है अथवा हमें इस हमले के मुकाबले के लिये किस मात्रा में स्वास्थ्य संबंधी अवसंरचना कब तक चाहिये।
अस्पताल, दवा, आॅक्सीजन, डाक्टर, एम्बुलेंस, वैक्सीन, वायरोलजिस्ट और वारलजी सेंटर इत्यादि। नि:संदेह सरकारों द्वारा तैयार मनोनुकूल आंकड़े गणितीय मॉडल के आधारभूत संख्याएं और मानदंड सब त्रुटिपूर्ण हो जायेंगे और इसके चलते यदि ये अनुमान और आंकलन फेल हो जायें तो हम लाखों की संख्या में लोगों की जान बचाने में विफल हो जायेंगे। मुख्य कारण होंगे ये भ्रामक आंकड़े और इस अघोषित नरसंहार के जिम्मेदार वे लोग होंगे जो इन आंकडों को जानबूझकर अथवा अनजाने में फौरी फायदे के लिये इसमें हेरफेर करके इसे पैदा करते हैं। कई महीनों से विशेषज्ञ देश में रैपिड जांच में निगेटिव पाए जाने वालों की आरटीपीसीआर जांच से पुष्टि ना करने को लेकर चिंता जता रहे हैं। सबब यह कि संक्रमितों का आंकड़ा रोज ब रोज देख रहे हैं, वह कई दिन पुराना और अनियमितताओं से भरा हुआ तथा अधूरा और बेशक बनावटी है।
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बीमारों, मरीजों की संख्या भी सही नहीं है। मौत के आंकड़ों में तो सबसे बड़ा घपला है। असल में सरकारों को चेहरा बचाने और जान बचाने में एक का चयन करना पड़ा तो उसने चेहरा बचाना चुना। जान बचाने के बजाए मौत के आंकड़े छिपाने में ताकत झोंकी पर उन्हें यह नहीं पता कि मौत के आंकड़े छिपाये जा सकते हैं लाशें नहीं। बीते साल 2019 में जब महामारी नहीं थी, एक दिन में लगभग 27 हजार भारतीयों की मौत हो रही थी।
कोई अफरा तफरी नहीं थी महज 4 हजार मौतों का इजाफा होने से चिताएं चौबीसों घंटे जलने लगीं किसी शवदाह गृह की चिमनी गल गयी तो कहीं नया श्मशान बनाना पड़ा तो कहीं कई प्लेटफार्म बढ़ाने पड़े कहीं सड़क और फुटपाथ पर लाशें जलानी पड़ी तो कहीं अंत्येष्टि के लिये जल प्रवाह और मिट्टी में दबाने का सहारा लिया गया। एक अखबार ने भावनगर में एक ही दिन दिवंगत 161 लोगों के शोक संदेश छापे मगर उस दिन पूरे गुजरात में मौतों का सरकारी आंकड़ा बस 53 का था। कुल मिलाकर आंकड़ों का यह खेल किसे गुमराह करता है। नीति कहती है कि बहुधा हमें लगता है कि हम दूसरों को छल रहे हैं लेकिन सच में हम खुद को ही छलते हैं और जब तक हम यह सब समझते हैं। बहुत देर हो चुकी होती है।