अक्षय तृतीया (Akshaya Tritiya) को आखा तीज भी कहते हैं। यानी आखा का अर्थ संपूर्ण, छानना छलनी, खुरजी, एक विशेष प्रकार का बर्तन। लेकिन यहां इसका अर्थ कभी न नष्ट होने वाले से है। अविनाशी मुहूर्त या अबूझ मुहूर्त। अत: हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार पूरे वर्ष में साढ़े तीन अबूझ मुहूर्त होते हैं।
पहला चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, दूसरा विजया दशमी और तीसरा अक्षय तृतीया (Akshaya Tritiya) और आधा मुहूर्त कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को रहता है। इस तरह साढ़े तीन अबूझ मुहूर्त माने गए हैं। अबूझ मुहूर्त का अर्थ होता है कि इन तिथियों के दिन पूरे दिन ही शुभ मुहूर्त रहता है इसलिए मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती है। इसी कारण ऐसी मान्यता है कि इस दिन से प्रारंभ किए गए कार्य अथवा इस दिन को किए गए दान का कभी भी क्षय नहीं होता।
अक्षय तृतीया (Akshaya Tritiya) की कथा :
प्राचीन काल में सदाचारी तथा देव-ब्राह्मणों में श्रद्धा रखने वाला धर्मदास नामक एक वैश्य था। उसका परिवार बहुत बड़ा था। इसलिए वह सदैव व्याकुल रहता था।
एक दिन धर्मदास ने किसी से अक्षय तृतीया (Akshaya Tritiya) व्रत के माहात्म्य बारे में सुना कि ‘वैशाख शुक्ल की तृतीया तिथि को देवताओं का पूजन व ब्राह्मणों को दिया हुआ दान अक्षय हो जाता है।’
कालांतर में जब अक्षय तृतीया (Akshaya Tritiya) का पर्व आया तो वैश्य ने गंगा स्नान कर, अपने पितरों का तर्पण किया। स्नान के बाद घर जाकर विधि-विधानपूर्वक देवी-देवताओं का पूजन कर, ब्राह्मणों को अन्न, सत्तू, चावल, दही, चना, गोले के लड्डू, पंखा, जल से भरे घड़े, जौ, गेहूं, गुड़, सोना, ईख, खांड तथा वस्त्र आदि दिव्य वस्तुएं श्रद्धा-भाव से दान की।
धर्मदास की पत्नी के बार-बार मना करने, कुटुंबजनों से चिंतित रहने तथा बुढ़ापे के कारण अनेक रोगों से पीड़ित होने पर भी वह अपने धर्म-कर्म और दान-पुण्य से विमुख न हुआ। यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती का राजा बना।
अक्षय तृतीया (Akshaya Tritiya) के दान के प्रभाव से ही वह बहुत धनी तथा प्रतापी बना। वैभव संपन्न होने पर भी उसकी बुद्धि कभी धर्म से विचलित नहीं हुई। अक्षय तृतीया के दिन इस कथा के श्रवण से अक्षय पुण्य फल की प्राप्ति होती है। ऐसी इस कथा की महत्ता है।