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कार्यकर्ता को प्रणाम

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सियाराम पांडे ‘शांत’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छोटे—बड़े सबको सम्मान देते हैं। हर आम और खास के हितों का ध्यान रखते हैं। यही वजह है कि उन्हें पता है कि सम्मान की फसल काटने के लिए सम्मान के बीज बोने पड़ते हैं। जो किसी को सम्मान नहीं दे सकता, वह सम्मान पाने का अधिकारी नहीं है। एकाध बार सम्मान पा जाए, यह अलग बात है। नीति कहती है कि विद्या विनय देती है। विनय से पात्रता यानी योग्यता विकसित होती है। पात्रता से धन की प्राप्ति होती है और धन से सुख मिलता है। मतलब हर सुखार्थी को विद्यार्थी बनना पड़ता है। विनयशील होना पड़ता है। विद्या पाने के लिए विनयी होना जरूरी है। कुछ पाने की पहली शर्त है विनम्रता। जो विनम्र नहीं हो सकता, वह पात्र भी नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी झुकना जानते हैं। वे पदाधिकारियों ही नहीं, कार्यकर्ताओं को भी सम्मान देना जानते हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक की भाजपा की विजय यात्रा  की वजह भी यही है। बंगाल की एक चुनावी सभा में उन्होंने एक कार्यकर्ता के पैर छू लिए। कार्यकर्ता ने भी प्रत्युत्तर में उनके पैर छुए। इससे प्रधानमंत्री का कार्यकर्ताओं के प्रति सम्मान का भाव प्रकट होता है। अब सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री ने बंगाल के चुनावी मंच पर जो कुछ भी किया, क्या वह प्रधानमंत्री पद की गरिमा के अनुरूप था? ज्यादातर लोग कहेंगे नहीं, लेकिन बहुत सारे लोग ऐसे भी होंगे जो कहेंगे कि हां। और प्रधानमंत्री ने ऐसा पहली बार तो नहीं किया है। प्रयागराज के कुंभ में उन्होंने सफाईकर्मियों के पैर पखारे थे और स्वच्छताग्रहियों के प्रति अपने सम्मान भाव का परिचय दिया था। तब कुछ लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा सुदामा के पैर पखारने की घटना का संस्मरण किया था। बाबा नरोत्तम दास की उस कविता को याद किया था।’हाय सुदामा तुम पायो महादुख, आयो इतै न कितै दिन खोए। पानी पराग को हाथ छुयो नहिं नैनन के जल सों पग धोए।’

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प्रधानमंत्री की संवेदनशीलता की उस समय भी देश— दुनिया में प्रशंसा हुई थी और अब जब उन्होंने पश्चिम बंगाल के चुनावी मंच पर कार्यकर्ता के पैर छुए तो ऐसा करके उन्होंने बंगाली समाज का दिल जीत लिया है। संत कबीर दास का ऐसे में एक दोहा याद आता है। ‘कबीर नवै सो आपको, अपर को नवै न कोय। घालि तराजू तोलिये, नवै सो भारी होय।’ प्रधानमंत्री ने भाजपा कार्यकर्ता के चरण छूकर एक बार फिर साबित कर दिया है कि वे प्रधानमंत्री भले बन गए हों लेकिन हैं तो जनता जनार्दन के सेवक ही। उनकी इस प्रकृति और प्रवृत्ति को उनसे कोई अलग नहीं कर सकता। उन्होंने बंगाल की जनता को एक बार फिर आश्वस्त किया है कि भाजपा सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री बंगाल का ही बेटा बनेगा। ऐसा करके उन्होंने बाहरी और भीतरी का राग अलाप रहीं ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को करारा जवाब भी दिया है। लगे हाथ जनता को यह भी बताने और जताने की कोशिश की है कि अहंकार उनमें नहीं,ममता बनर्जी में है। यही वजह है कि बंगाल की जनता को केंद्र सरकार की योजनाओं का समुचित लाभ नहीं मिल पा रहा है।

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प्रधानमंत्री जहां कहीं भी जाएं वह चाहे देश हो या विदेश, वहां से अपना भावनात्मक रिश्ता जरूर बना लेते हैं। वे जोड़ने और सम्मान देने की कला में विश्वास करते हैं।  जब वे यह कहते हैं कि बंगाल से तो भाजपा की नाभिनाल जुड़ी है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भाजपा को स्थापित किया था तो वह अपनी पूरी पार्टी को बंगाल से जोड़ते हैं। भीतरी—बाहरी का जवाब तो उन्होंने उसी दिन दे दिया था। उन्होंने कहा है कि बंगाल बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, रविंद्र नाथ टैगोर और सुभाष चंद्र बोस जैसे नायकों की भूमि है और इस धरती पर कोई भारतीय बाहरी नहीं है। बंगाल ने पूरे भारत को ‘वन्दे मातरम’ की भावना में बांधा है और उस बंगाल में ममता  बनर्जी ‘बोहिरागोतो’’ की बात कर रही हैं।

कोई भारतीय यहां बाहरी नहीं है, वे भारत माता के बच्चे हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं को चुनावी पर्यटक बताने और भाड़े पर बंगाली सीखने जैसे आरोपों का प्रधानमंत्री ने मुखरतापूर्वक भी और अपने आचरण से भी मुकम्मल जवाब दिया है। दरअसल, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भाजपा और प्रधानमंत्री का जिक्र करते हुए अक्सर अपने भाषणों में कहती हैं कि वह दिल्ली या गुजरात से आए ‘‘बाहरी’’ लोगों को बंगाल में शासन करने नहीं देंगी। उनके इस बयान पर छिड़ी ‘‘स्थानीय बनाम बाहरी’’ की बहस के बीच मोदी की यह टिप्पणियां आई हैं।

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इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि इस समय विपक्ष के विरोध के नाभिक पर नरेंद्र मोदी ही हैं। विपक्ष की एक भी जनसभा ऐसी नहीं होती जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अहंकारी न कहा जाता हो। यह न कहा जाता हो कि जनता उनके दंभ का जवाब देगी। विपक्ष का चाहे छोटा नेता हो या बड़ा,आलोचना के पहले पायदान पर वह नरेंद्र मोदी को ही रखता है। हर किसी का एक ही तर्क होता है कि नरेंद्र मोदी को सफाई देनी चाहिए। माफी मांगनी चाहिए। जितने मुंह  उतनी बातें होती है। हर किसी का जवाब दिया जाए तो आदमी जवाब देते—देते चुक जाएगा लेकिन उस जवाब से सभी को संतुष्ट नहीं किया जा सकता। भारतीय मनीषियों ने कहा है कि ‘स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्या: सर्व मानवा:।’ अर्थात पृथ्वी के सभी मनुष्य अपने—अपने चरित्र से शिक्षा दें। बोलने से अच्छा होता, काम करना। अपने आचरण से जो बात कही जा सकती है, वैसा प्रभाव वाणी से संभव नहीं है। लोग किसी बात को सच मान ही लें, जरूरी तो नहीं। कविवर रहीम ने लिखा है कि ‘अंतर अंगुरी चार कौं सांच—झूठ में होय। सच मानी देखी कहै, सुनी न मानै कोय। मतलब आदमी जो कुछ अपनी आंखों से देखता है, उसे ही सत्य मानता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत सारे सवालों को जवाब अपने आचरण से देते रहते हैं। सही समय पर सही जवाब देना उनकी फितरत में शामिल है।

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जब राजनीतिक दल उनके विरोध में जुटे होते हैं तो वे विकास की गोट बिछाते रहते हैं और यही बात है कि हर बार उनके विरोधियों को मुंह की खानी पड़ती है। प्रधानमंत्री की गतिविधियों और उनके राजनीतिक क्रियाकलापों में नौटंकी करार देने वालों को उनसे कुछ सीखना चाहिए। जो वृक्ष फलदार होता है, वह झुक जाता है। प्रधानमंत्री की विनम्रता और संवेदनशीलता को हर किसी को अपने जीवन में उतारना चाहिए। पद —प्रतिष्ठा तो मिलती रहती है लेकिन सर्वप्रथम हमें मनुष्य होना चाहिए। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की अवधारणा के साथ हम लोकतंत्र को मजबूती दे सकते हैं। वाणी और व्यवहार का संयम ही किसी राजनेता को लोकप्रिय बनाता है।

चुनाव में मतदाता का अपना निर्णय होता है। वह जिसे चाहे अपना मत दे लेकिन किसी को नीचा दिखाकर आगे बढ़ने से अच्छा है कि अपने काम से, विकासकार्यों से उससे बड़ी रेखा खींच दी जाए। प्रधानमंत्री ने कार्यकर्ता के पैर छूकर यह साबित कर दिया है कि वह अहंकारी नहीं है बल्कि उनकी नजर में कार्यकर्ता ही वह रीढ़ है जिसकी बदौलत कोई संगठन, कोई पार्टी मजबूती पाती है। फलती और फूलती है। प्रधानमंत्री के इस प्रयास को विपक्ष किस रूप में लेगा, यह देखने वाली बात होगी लेकिन प्रधानमंत्री का झुकना भी मायने रखता है। इस झुकने से प्रधानमंत्री का तो सम्मान बढ़ा ही है, देश भर के भाजपा कार्यकर्ताओं का भी मनोबल बढ़ा है। विपक्षी दलों के कार्यकर्ता भी सोच रहे होंगे कि उनके नेता के दिमाग में यह झुकने वाली बात क्यों नहीं आई। ऐसे में अहंकारी कौन है, कौन नहीं नहीं है का मानसिक द्वंद्व तो प्रबल हुआ ही है। काश, सभी दल कार्यकर्ताओं को इतना ही सम्मान देना सीख जाते तो भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती और अधिक देखने लायक होती।

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