भारत भयंकर ठंड और शीतलहर की चपेट में है। पहाड़ी क्षेत्रों में जहां तरफ बर्फबारी हो रही है, वहीं उत्तर भारत के अधिकांश इलाकों में पारा रोज—बरोज लुढ़क रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों से आने वाली बर्फीली हवाओं ने मैदानी इलाकों को पूरी तरह ठिठुराकर रख दिया है। ठंड से निपटने के लिए अलाव और रैन बसेरों की मुकम्मल व्यवस्था अभी तक नहीं हो पाई है। इस तरह की तैयारी तो बहुत पहले ही हो जानी चाहिए। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अलाव और रैनबसेरों की समुचित व्यवस्था करने के निर्देश दिए हैं। इसके पहले तक तो आदेश—आदेश अधिकारी खेल रहे थे लेकिन मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप के बाद अधिकारियों में भी तेजी आ गई है।
ऐसा लग रहा था कि सब मुख्यमंत्री की पहल का ही इंतजार कर रहे थे लेकिन ठंड से निपटने के जमीनी इंतजाम अभी तक नाकाफी ही है। ऐसा अकेले उत्तर प्रदेश में ही हो, ऐसी बात नहीं है। अन्य राज्यों में भी ठंड से निपटने के कमोवेश ऐसे ही हालात हैं। मौसम विज्ञान विभाग अपनी शब्दावली में इसे ठंड और भीषण ठंड की स्थिति कह रहा है। लखनऊ,प्रयागराज और कानपुर जैसे शहरों में सर्दी का सितम जारी है।
मौसम विभाग द्वारा शनिवार को जारी एक बयान के मुताबिक राजधानी लखनऊ में न्यूनतम तापमान 4.3 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया जबकि प्रयागराज और कानपुर का न्यूनतम तापमान 5.6 डिग्री रहा। प्रदेश में सबसे कम तापमान फुरसतगंज (रायबरेली) और चुर्क (सोनभद्र) में दर्ज किया गया। दोनों स्थानों पर पारा 2.6 डिग्री सेल्सियस तक लुढ़क गया। मौसम विभाग के मुताबिक रविवार को भी प्रदेश के कई इलाको में कड़ाके की ठंड पड़ने का अनुमान है।
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पंजाब, हरियाणा और उत्तर-पश्चिमी राजस्थान में भी ठंड अपने चरम पर है। झुग्गी—झोपड़ी में रहने वाले या सड़कों पर रात बिताने वाले मजदूरों और रिक्शाचालकों की हालत पर सरकार को विशेष ध्यान देना चाहिए। मौसम विभाग के मुताबिक अगले कुछ दिन यही हाल बना रहने वाला है। ध्यान रहे, तापमान में इस तरह की अचानक आने वाली कमी स्वास्थ्य के लिहाज से घातक मानी जाती है। इसकी वजह यह है कि शरीर इस बदलाव के लिए तैयार नहीं रहता। इस कारण उसकी रोग प्रतिरोधक शक्ति इतनी कमजोर पड़ जाती है उसके न सिर्फ ठंड पकड़ने बल्कि, तरह-तरह के वायरसों की चपेट में आने का खतरा भी बढ़ जाता है।
जाहिर है, यह बात कोरोना वायरस पर भी लागू होती है। समझा जा सकता है कि इन हालात में राजधानी दिल्ली के आसपास कृषि कानूनों को लेकर आंदोलन कर रहे लाखों किसानों का दिन-रात सड़क पर ही रहना उनके लिए कितना जोखिम भरा है। धक्कामुक्की के छिटपुट मामलों को छोड़ दें तो इस आंदोलन में अब तक कोई हिंसा नहीं हुई है। बावजूद इसके, 22 से ज्यादा किसानों की मौत हो चुकी है। ज्यादातर किसानों की जान रात-दिन प्रतिकूल स्थितियों में खुले में बैठे रहने से गई है। अब जब मौसम ने भी अपना कठोर चेहरा दिखाना आरंभ किया है तो आंदोलित किसानों के स्वास्थ्य को लेकर चिंता का बढ़ना स्वाभाविक है। लेकिन यह चिंता समाज के अलावा सरकार के रुख में भी दिखनी चाहिए। यह सही है कि किसान अपनी मांगों पर जरा भी झुकने को तैयार नहीं हैं। सरकार ने कुछ लचीलापन जरूर दिखाया है, लेकिन बातचीत किसी सिरे चढ़ सके, इसके लिए वह काफी नहीं है। दोनों पक्षों के पास अपने स्टैंड को लेकर अलग-अलग तर्क हैं इसलिए कोई हल न निकलने के लिए किसी एक पक्ष को दोषी ठहराना ठीक नहीं है। फिलहाल सवाल सिर्फ एक है कि हल निकलने तक दोनों पक्ष एक-दूसरे के प्रति कैसा रुख अपनाते हैं।
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बेहतर होगा कि सरकार अभी के समय में आंदोलनकारी किसानों को जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराने पर विशेष ध्यान दे। वे भारत के सम्मानित नागरिक हैं और सरकार से कुछ उम्मीद लगाकर ही अपने घर से दूर इतना कष्ट झेल रहे हैं। इस जानलेवा ठंड में बतौर अभिभावक केंद्र सरकार को उनकी सुरक्षा के उपाय करने चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारों को बढ़ती शीतलहर को हल्के में नहीं लेना चाहिए और शीत लहर से बढ़ने के व्यापक प्रबंध करने चाहिए। शीतलहर के दौर पर हृदयाधात की संभावना बढ़ जाती है। सर्वाधिक हृदयाघात की घटनाएं जाड़े के दिनों में होती है लेकिन इन दिनों इलाज का जो ट्रेंड चल रहा है। पहले कोरोना जांच फिर इलाज। ऐसे में हृदयाघात के मरीजों का रामनाम तो सत्य ही है। इसलिए सरकार को अपनी चिकित्सा नीति में थोड़ी नमनीयता लानी चाहिए। ठंड से दमा और टीबी के मरीजों के लिए भी जानलेवा हालात बनते हैं। इसलिए भी सरकार और चिकित्सा संस्थानों को चाहिए कि वे कोरोना संक्रमण का विचार करते हुए भी उनके इलाज को प्राथमिकता दें।
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यही लोकहित का तकाजा भी है। आम आदमी को भी चाहिए कि वे इस भयंकर शीतकाल में विशेष सावधानी बरतें और भूलकर भी लापरवाही न करें। घर से जब भी निकलें, मुंह और कान ढंककर निकलें। पर्याप्त गर्म कपड़े पहनें। पहले अब तक स्वयंसेवियों की जमात गरीबों को गर्म कपड़े और कंबल बांटना शुरू कर देती थी लेकिन अभी तक किसी भी स्वयंसेवी संगठन, उद्योगपति या नेता ने गरीबों की मदद नहीं की है। उनकी यह उदासीनता देश के गरीब और बेसहारा लोगों पर भारी पड़ सकती है। विचार तो इस बात का भी किया जाना चाहिए।