लखनऊ : 1962 का युद्ध भारत भले ही हार गया हो लेकिन मेजर शैतान सिंह की कहानी हर भारतीय के सीनें को गर्व से चौड़ा कर देती है। मेजर शैतान सिंह भाटी ने 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध में चीनी सैनिकों की लाशें बिछा दिया था। मेजर शैतान सिंह भाटी का जन्म 1 दिसंबर 1924 को जोधपुर में हुआ था। उनका संबंध सैन्य परिवार से होने की वजह से उनकी भी इच्छा सेना में जाने की हुई। उनके आर्मी अफसर लेफ्टिनेंट कर्नल हेम सिंह भाटी थे। हेम सिंह ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांस में भारतीय सेना के साथ सेवा की और ब्रिटिश सरकार द्वारा ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर (ओबीई) से सम्मानित किए गए थे।
मेजर शैतान सिंह ने जोधपुर के राजपूत हाई स्कूल में अपनी मैट्रिक तक की पढ़ाई की। स्कूल में वह एक फुटबॉल खिलाड़ी के रूप में अपने कौशल के लिए जाने जाते थे। 1943 में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद लग जसवंत कॉलेज गए और उन्होंने 1947 में स्नातक किया। 1 अगस्त 1949 को वह एक अधिकारी के रूप में जोधपुर राज्य बलों में शामिल हो गए। उनको 1 अगस्त, 1949 को कुमाऊं रेजिमेंट में कमीशन मिला था। 1962 के भारत-चीन युद्ध में उनको अपना पराक्रम दिखाने का मौका मिला।
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8 नवंबर, 1962 की सुबह, लद्दाख की चुशुल घाटी बर्फ से ढंकी हुई थी। माहौल में एक खामोशी सी थी। लेकिन यह खामोशी ज्यादातर तक नहीं रह सकी। 03.30 बजे तड़के सुबह घाटी का शांत माहौल गोलीबारी और गोलाबारी से गूंज उठा। बड़ी मात्रा में गोला-बारूद और तोप के साथ चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के करीब 5,000 से 6,000 जवानों ने लद्दाख पर हमला कर दिया था।
मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व वाली 13 कुमाऊं की एक टुकड़ी चुशुल घाटी की हिफाजत पर तैनात थी। भारतीय सैन्य टुकड़ी में मात्र 120 जवान थे जबकि दूसरी तरफ दुश्मन की विशाल फौज। ऊपर से बीच में एक चोटी दीवार की तरह खड़ी थी जिसकी वजह से हमारे सैनिकों की मदद के लिए भारतीय सेना की ओर से तोप और गोले भी नहीं भेजे जा सकते थे। अब 120 जवानों को अपने दम पर चीन की विशाल फौज और हथियारों का सामना करना था। हमारे सैनिक कम थे और उनके पास साजोसामान की कमी थी लेकिन उनका हौसला बुलंद था। 13 कुमाऊं के वीर सैनिकों ने जो संभव हो सका, उतना ही सही जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी।
रेजांग ला युद्ध में चीनी सैनिकों से लोहा लेने के बाद जब भारतीय सैनिकों के हथियार खत्म हो गए, तो उन्होंने हाथों से लड़ना शुरू कर दिया और 1300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। 123 में से 114 सैनिक शहीद हो गए, इन्हीं में मेजर शैतान सिंह भी थे। बाकी 9 सैनिक बंदी बना लिए गए थे। भारतीय सैनिकों के इस पराक्रम के आगे चीनी सेना को भी झुकना पड़ा और अंततः 21 नवंबर को उसने सीजफायर का ऐलान कर दिया।
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युद्ध के दौरान मेजर शैतान सिंह ने अपनी जान की परवाह किए बिना अपने सैनिकों का हौसला बनाए रखा और गोलियों की बौछार के बीच एक प्लाटून से दूसरी प्लाटून जाकर सैनिकों का नेतृत्व किया। इसी दौरान उनके कई गोलियां लग गईं। ज्यादा खून बह जाने पर उनके दो साथी जब उन्हें उठाकर ले जा रहे थे तभी चीनी सैनिकों ने उन पर मशीन गन से हमला कर दिया। मेजर को लगा कि उन सैनिकों की जान भी खतरे में है, इसलिए उन दोनों को पीछे जाने का आदेश दिया। मगर उन सैनिकों ने उन्हें एक पत्थर के पीछे छिपा दिया। बाद में इसी जगह पर उनका पार्थिव शरीर मिला। जिस वक्त उन्हें ढूंढा गया, उस वक्त भी उनके हाथ में उनकी बंदूक थी और पकड़ ढीली नहीं हुई थी।