सियाराम पांडे शांत
कौन कहां से लड़ेगा,यह पार्टी तय करती है। इस पर किसी को भी तंज नहीं कसना चाहिए लेकिन लोक निरंकुश है। तिस पर उसे बोलने की आजादी भी है। यह आजादी उसे संविधान से मिली है। संविधान बनाने वालों को यह पता होता कि एक दिन यह आजादी सिर चढ़कर बोलेगी और नाक में दम कर देगी तो शायद वे उसी समय संभल गए होते। वाणी के बारे में कहा जाता है कि इसकी चोट तीर और बंदूक की गोली से भी घातक होती है। हथियारों से लगी चोट तो फिर भी भर जाती है लेकिन वाणी की चोट तो सीधे दिल पर लगती है। कभी जाती नहीं है।
‘स्रवन द्वार ह्वै संचरै सालै सकल शरीर। ’चुनाव में कौन कहां से लड़े या न लड़े, यह उसकी पार्टी का विषय होता है। उस पर तंज कसना मुनासिब नहीं है लेकिन जो खुद चुनाव नहीं लड़ रहे या जिन्होंने अपने अंदर चुनाव लड़ने की अभी हिम्मत ही नहीं जुटाई है, वे भी किसी के चुनाव लड़ने पर अंगुलियां उठा रहे हैं। जब अपने गृहक्षेत्र से टिकट मिला तो भी ऐतराज। कह रहे हैं कि जनतातो बाद में घर भेजती। उनकी पार्टी ने पहले भेज दिया। वे सज्जन पूर्व के चुनावी इतिहास को याद करें तो उन्हें याद आएगा कि उनके भरे-पूरे राजनीतिक कुनबे से बसपांच ही सीटें निकली थी। पूरी पार्टी का डिब्बा गोल हो गया था। जनता की लाठी में आवाज नहीं होती लेकिन वह जिस पर पड़ जाती है, वह पानी नहीं मांगता।
‘इसका मारा बेसुध होता, दिन उगते प्राण गंवाता है। ज्यों ही तन पर पड़ती है,तन मृतक तुल्य हो जाता है।’ मतदाताओं की मार का विचार कर ही शायद रहीम ने लिखा होगा कि ‘भारी मार बड़ेन की चित से देहु उतार।’ मतदाताओं ने पांच साल पहले जिस गलती की सजा दी थी, जरूरी नहीं कि उस गलती की पुनरावृत्ति न हो। कैरानाकांड के फरार अभियुक्त को टिकट देकर एक दल क्या सोचता है कि यह सुशासन का मार्ग है।
सवाल यह नहीं कि कौन घर जाएगा और कौन यूपी संभालेगा। किसी दल के भेजने से कोई घर जाता या सत्ता में जाता तो तीसमारी में कौन किससे कम है? एक दल के नेता बहुत उत्साहित हैं। एक ने एक बड़े नेता का रेल टिकट पहले ही कटा रखा है। उन्हें शर्तिया भरोसा है कि इस बार सरकार तो उनके दल की ही बनेगी। अब उन्हें नहीं पता कि दूसरे दल जहां से सोचना बंद करते हैं, वहां से तो इनका योग-क्षेम शुरू होता है। यहां तो नींद नारि भोजन परिहरहिं की संस्कृति है। एक पक्ष सबकी सोचता है और एक बस अपनी। व्यक्ति की हार और जीत का कारण उसकी सोच होती है।
बगावतियों और घुसपैठियों की भीड़ थोड़ी ताकत तो देती है मगर उतना ही कमजोर भी करती है। इस बार भी जनता को तय करना है कि कौन उसका है या पराया। टिकट देकोई लेकिन जब तक जनता की मुहर नहीं लगती तब तक उसका कोई मतलब नहीं है।