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पश्चिम बंगाल में सत्ता संघर्ष

west bengal politics

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पश्चिम बंगाल में भीतरी और बाहरी का शोशा उछाला जा रहा है और राज्य के वातावरण को विषाक्त करने की कोशिश की जा रही है। हिंसा को ही सत्ता में बने रहने का हथियार समझ लिया गया है। हिंसा से लोकतंत्र कमजोर होता है लेकिन यह बात समझने के लिए न तो ममता तैयार हैं और न ही उनके समर्थक।

पश्चिम बंगाल में कोलकाता से 24 परगना जिले के डायमंड हार्बर शहर जा रहे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर तृणमूल कांग्रेस ने हमला किया। इसमें भाजपा के कई कार्यकर्ता मारे गए हैं। भाजपा कार्यकर्ता देश भर में ममता बनर्जी की आलोचना कर रहे हैं। ममता सरकार को भंग करने की मांग कर रहे हैं। जिस भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के सहयोगी रहे मुकुल राय की बदौलत वे आज बंगाल की मुखिया बनी बैठी है, वे आज उनके सर्वथा प्रतिकूल हैं और इस स्थिति के लिए ममता बनर्जी की तुनकमिजाजी ही बहुत हद तक जिम्मेदार है। बगावत उनके स्वभाव में है।

यही वजह है कि उन पर न तो कांग्रेस खुलकर यकीन कर पा रही है और न अन्य दल। वाम दल तो उनके चिर विरोधी हैं ही। नड्डा के काफिले पर हमला मामले में केंद्र द्वारा तलब किए गए डीजीपी और मुख्य सचिव को दिल्ली न भेजने का ऐलान कर  उन्होंने ऐलान की त्वरा और बढ़ा दी है। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को आग से न खेलने और भीतरी—बाहरी की बहस छोडत्रने की नसीहत दी है।

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पश्चिम बंगाल में जेपी नड्डा के काफिले पर हुए हमले को दुर्भाग्यपूर्ण  और लोकतंत्र को कलंकित करने वाला कृत्य करार दिया है। उन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी  से कहा है कि वे संविधान को मानें और अपने दायित्वों से पीछे न हटें। राज्य में कानून व्यवस्था की लगातार बिगड़ती स्थिति पर भी उन्होंने चिंता जाहिर की है। राज्यपाल कह रहे हैं कि बंगाल पुलिस, सरकार की कठपुतली बन गई है। पश्चिम बंगाल में कानून व्यवस्था को लेकर राज्यपाल की रिपोर्ट गृह मंत्रालय को मिल गई है। गृह मंत्रालय ने पश्चिम बंगाल के  पुलिस महानिदेशक और मुख्य सचिव को 14 दिसंबर को तलब किया है लेकिन पश्चिम बंगाल का इतिहास तो उसकी एक कहावत में छिपा है— ‘ करबो लरबो जितबो।’ अर्थात करेंगे, लड़ेंगे और जीतेंगे। बंगाल की राजनीति ही इसी सिद्धांत पर टिकी हुई है।

चाहे वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव रहा हो या 2019 का लोकसभा भाजपा और तृणमूल कांग्रेस इसी कहावत पर अमल करती नजर आई है। वर्ष 2014 में भाजपा को पश्चिम बंगाल की 42 में से 18 और 2019 में 22 लोकसभा सीटों का मिलना तृणमूल कांग्रेस के लिए किसी झटके से कम नहीं है। उसे लगता है कि अगर भाजपा वहां जड़ें जमाने में कामयाब हो गई तो तृणमूल कांग्रेस के लिए सत्ता में लंबे समय तक बने रह पाना मुमकिन नहीं है। यही वजह है कि ममता बनर्जी केंद्र की सरकारी योजनाओं को भी पश्चिम बंगाल में लागू करने से हिचकती रही हैं।

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पश्चिम बंगाल की 42 सीटों में अपने लिए संभावनाएं तलाश रही भाजपा जी —तोड़ एक कर रही है। जेपी नड्डा पश्चिम बंगाल में अपने कई कार्यालय स्थापित करने गए थे। ममता इस बात को बखूबी जानती हैं कि जनता की ममता अगर भाजपा पर बरसने लगेगी तो पश्चिम बंगाल में सत्तासीन रहना उनके लिए निरापद नहीं रह जाएगा। यही वजह है कि ममता बनर्जी  भाजपा और  खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधे टक्कर ले रही हैं। भाजपा ने  जिस तरह ममता बनर्जी की पार्टी में ही सेंध लगाई है और टीएमसी के विधायकों और पार्षदों को अपने पाले में शामिल करा दिया है, उससे भी तृणमूल कांग्रेस का आक्रोश स्वाभाविक है। पश्चिम बंगाल में तो राजनीतिक हिंसा का इतिहास तो सौ साल से भी अधिक पुराना है।

वहां जिसने भी सत्ता पाई है, उसे राजनीतिक संघर्ष यानी कि हिंसा का सामना करना पड़ा है। ममता बनर्जी तो यहां तक कह रही हैं कि यहां कभी गृह मंत्री होते हैं, तो कभी चड्ढा, नड्डा, फड्डा और भड्ढा। जब उन्हें दर्शक नहीं मिलते, तो वे अपने कार्यकर्ताओं से ऐसी नौटंकियां करवाते हैं। मतलब वे तो यह मानने को भी तैयार नहीं कि उनके समर्थकों ने ऐसा कुछ किया भी है। जेपी नड्डा ने कहा है कि ममता जी की भाषा से नहीं लगता कि उन्होंने पश्चिम बंगाल को समझा भी है। बंगाल उनका ही नहीं, हम सबका है लेकिन ममता बनर्जी जिस तरह पश्चिम बंगाल में अन्य राज्यों की उपस्थिति का विरोध कर रही है, वह ‘सबै भूमि गोपाल की’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’की राष्ट्रीय सांस्कृतिक अवधारणा के भी खिलाफ है।

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बंगाल में राजनीतिक हिंसा की शुरुआत तो ब्रितानी वायसराय लॉर्ड कर्जन के बंगाल के विभाजन के फैसले के विरोध में 1905 में ही हो गई थी लेकिन आज़ादी  के बाद भी उसे  देखा जा सकता है। 1967 से 1980 के बीच का समय पश्चिम बंगाल के लिए हिंसक नक्सलवादी आंदोलन, बिजली के गंभीर संकट, हड़तालों और चेचक के प्रकोप का समय रहा। 1977 में कांग्रेस का वर्चस्व समाप्त हो गया और वामपंथियों ने सत्ता हासिल कर ली। साल 1984 में ममता ने सीपीएम के दिग्गज नेता सोमनाथ चटर्जी को चुनाव में हराने के बाद ममता सुर्खियों में आईं दिया।

1991 में तत्कालीन नरसिम्हा राव की सरकार में  खेल मंत्री रहीं ममता बनर्जी ने  केंद्र सरकार पर खेल मंत्रालय से खेल करने का आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया था। साल 1996 में एक और धमाका करते हुए ममता ने कांग्रेस को सीपीएम की कठपुतली बता  उसके खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया। ममता की तुनकमिजाजी और अस्थिर छवि धीरे-धीरे वामपंथियों से लड़ने में कारगर साबित होने लगी। तृणमूल को इस बात का अहसास हुआ कि हिंसक हुए बिना आप सत्तारूढ़ पार्टी का मुकाबला नहीं कर सकते। ममता अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से हाथ मिला रेल मंत्री बन गयी लेकिन एनडीए के साथ भी ममता की जोड़ी जमी नहीं और 2001 में वह सरकार से अलग हो गयी।

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ममता ने एक बार फिर से कांग्रेस का दामन थाम गठबंधन कर 2004 का लोकसभा और 2006 का विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन  ममता को चुनाव में मुंह की खानी पड़ी।  2007 से 2011 तक का समय सर्वाधिक हिंसक वर्षों में से था। सिंगूर में टाटा नैनो कार परियोजना और नंदी ग्राम में औद्योगीकरण के लिए किसानों की ज़मीन के अधिग्रहण पर ममता ने आन्दोलन कर किसान समर्थक और उद्योग विरोधी हथियार का फ़ॉर्मूला अपना कर वाम मोर्चा की सरकार को झुका दिया। टाटा को  अपना बोरिया बिस्तर समेट कर सिंगूर से भागना पड़ा और तो और नंदी ग्राम परियोजना का भी वही हाल हुआ। सिंगूर और नंदीग्राम ने ममता को गांव-गांव तक पहुंचा दिया जिसका असर 2009 के लोकसभा चुनाव में दिखा जब ममता को जबरदस्त कामयाबी हासिल हुई। 2011 के विस चुनाव में ममता ने मां,माटी और मानुष का नारा दिया और 34 सालों से चली आ रही वामपंथ सरकार को उखाड़ फेंका। तृणमूल ने नंदीग्राम और सिंगूर में किसानों के हिंसक आंदोलनों के सहारे सत्ता में कदम रखा। सत्ता हासिल करने के बाद भी तृणमूल ने अपना पुराना रवैया जारी रखा। हालिया वर्षों के पंचायत चुनाव को अपने पक्ष में करने के लिए तृणमूल ने हिंसा का इस्तेमाल किया।

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भाजपा का आरोप है कि ममता के शासन काल में उसके 120 से अधिक पार्टी कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है। पार्टी इसके खिलाफ लगातार रैलियां और प्रदर्शन करके राज्य के कोने-कोने तक संदेश पहुंचा भी रही है। पार्टी इस लड़ाई को जमीन से लेकर कोर्ट स्तर पर लड़ रही है। वैसे पश्चिम बंगाल की राजनीति में सत्ता हासिल करने के लिए जिस तरह हिंसात्मक संघर्ष् का सहारा लिया जा रहा है, वह बहुत उचित न ही है। इससे न तो लोकतंत्र मजबूत होता है और न ही राजनीतिक परिपक्वताके ही दीदार होते हैं। विचारधाओं का सम्मान ही लोकतंत्र की जीवंतता और सबलता का आधार है। पश्चिम बंगाल में यह बात कब समझी जाएगी, यह देखने वाली बात है।

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