विजय गर्ग
समय जैसा निर्मोही शायद ही दुनिया में कोई होगा। इसका बर्ताव सबके लिए एक जैसा होता है। शायद यही अंतर समय और मनुष्य में है। समय के विपरीत मनुष्य के लिए जो कल तक गलत था, वही आज के लिए सही बन जाता है। उसके लिए जरूरतें गिरगिट की तरह रंग बदलती रहती हैं। दिमानव के शर्म का रास्ता निर्वस्त्र सड़क से होते हुए पत्तों, चर्मों के पड़ाव तक पहुंचा। स्वयं को गुफाओं-कंदराओं में बसाने लगा। धीरे-धीरे जनधारा में मिल कर समाज का निर्माण किया। पर किसे पता था कि शर्म का भी अपना अर्थशास्त्र होता है। एक ऊंचाई तक जाने के बाद वह पतनावस्था की नियति से आलिंगन करने लगता है। आजकल वस्त्र के नाम पर छोटे-छोटे कपड़े उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की भांति दूर-दूर तक खिसकते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप अंग के नाम पर नंग और कसावट के नाम पर तंग वस्त्र पहनना फैशन बनता जा रहा है।
आजकल के बच्चे कंक्रीट के जंगलों वाले भवनों में चारदीवारी के भीतर बाहर की अर्धचेतनावस्था वाली दुनिया को समझने का प्रयास कर रहे हैं। भोजन का चित्र देख कर पेट नहीं भरता। भीतर बैठ कर बाहर की दुनिया नहीं समझी जाती। निबंध-भाषणों से संस्कृति, रीति-रिवाजों की रक्षा नहीं की जा सकती। दिखावे की पूंछ पकड़ कर असलियत की नदी पार नहीं की जाती।
आजकल बच्चे मां के आंचल से ओझल होते जा रहे हैं। खासकर शहरी बच्चे धान की भांति आंचल के ज्ञान से भी शून्य होते जा रहे हैं। शहरी बच्चों के लिए आंचल का ज्ञान उतना ही है जितना धान के बारे में पेड़, पौधा या लता होना है। बच्चे मां का आंचल तभी जान पाएंगे जब मांएं साड़ी पहनेंगी। आज फैशन बिजली की गति से जहां आगे बढ़ता जा रहा है वहीं नैतिकता पाताल में समाता जा रहा है। फूहड़ता फैशन के नाम पर तो कुछ स्टेटस के नाम पर हमारे परिधानों को लील रहा है। फैशन ने साड़ी को ऐसे लीला जैसे उससे छत्तीस का आंकड़ा हो।
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मां (Mother) की साड़ी और साड़ी का आंचल हमारी संस्कृति (Culture) का संरक्षक और परिचायक है। आज भी गर्म बर्तन चूल्हे से उतरते समय मां के आंचल को बहुत याद करते हैं। यही वह आंचल था, जो कभी रोते हुए बच्चों के आंसू पोंछता तो कभी सुलाने का बिस्तर बन जाता था। मच्छर-मक्खी के भिनभिनाने से पहले आंचल पंखा बन कर हलराने लगता था। डर कर छिपने का सबसे सुरक्षित स्थान आंचल ही तो था। नन्हे-नन्हे कदमों से चलने का अभ्यास इसी आंचल को पकड़ कर किया जाता था।
सर्दी, बारिश, गर्मी धरती पर जब आएं तब आएं, लेकिन मजाल जो मां के लल्ले को छू पाएं। मां के आंचल को पार करने का दुस्साहस कोई मौसम नहीं कर पाता था। हमारा पसीना पोंछने, राजकुमार-सा हमें पुचकारने का साधन मां का आंचल था। मां आंगन में उगी सब्जियां, खिले फूल या फिर चुनी लकड़ियां अपने आंचल में भर ले आती थी। अपने लल्ले के लिए खेल-खिलौने, मिठाई आदि खरीदने के लिए मां अपनी दुनिया भर की दौलत आंचल में ही तो बांधती थी। मां का आंचल, आंचल नहीं बच्चों के लिए दुनिया थी। ईश्वर सब जगह एक साथ नहीं रह सकता था, तब उसने मां को बनाया, इसलिए मां के आंचल में शांति महसूस होती है।
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सृष्टि की रचना में मां और मां के आंचल का बड़ा महत्त्व है। जब बच्चे के लिए सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं, तब मां का ही आंचल सुख बरसाने वाला होता है। इसलिए आंचल का महत्त्व कभी कम नहीं होता। बच्चे को धूल, मिट्टी, धूप से बचाने में पर्दे की तरह काम करने वाला आंचल न जाने अब कहां गायब होता जा रहा है। मां शब्द से ही परम शांति का अनुभव होता है, तो फिर उनका आंचल तो ममता की वह छांव है, जहां धरा की सारी की सारी खुशियां समाई हैं। जिस आंचल में इतनी खुशियां भरी हों उस आंचल की छांव में हम अपने को सुरक्षित और अपार शांति का अनुभव करते हैं। मां के इस आंचल में संसार भर के प्रेम और निश्चिंतता का संगम है, इसीलिए उसके आंचल तले अपार शांति मिलती है।
जिस प्रकार जब तक पत्ता पेड़ से लगा रहता है अपने को सुरक्षित महसूस करता है, उसी तरह मां के आंचल तले हम भी सुरक्षित रहते हुए शांति महसूस करते हैं। मां का आंचल संपूर्ण अध्याय होता है हमारी जिंदगी की किताब का। जब उसके पल्लू की आड़ से छिप कर देखते थे तब उसके पल्लू के पीछे से सारी दुनिया कितनी रंगीन दिखा करती है। मां का पल्लू हमारे लिए किसी गुल्लक से कम नहीं है। सच कहें तो वह गुल्लक नहीं, तिजोरी है। खुशियों की तिजोरी। जीवन के मीठे-मीठे अहसासों की तिजोरी। आंचल केवल आंचल नहीं होता, जीवन जीने का संपूर्ण दर्शनशास्त्र है वह। काश विलुप्ति की मार झेलते आंचल में अचानक वसंत आ जाए, तो धरती के सारे दुख समाप्त हो जाएंगे।