.. तो क्या चंद्रशेखर पं.भुवनेश्वर दयाल उपाध्याय के 11वें मुख्यमंत्री बनने जा रहे थे। ..तो क्या भारतीय जनसंघ के शलाकापुरुष पं. दीनदयाल उपाध्याय के परिजनों ने ऐन वक्त पर देहरादून पहुंचकर ‘नयी भाजपा’ के रणनीतिकारों का खेल रोक दिया,ऐसे कई सवाल हैं जो मोदी—शाह की रणनीतियों में खासी दिलचस्पी रखने वाले घुमंतुओं और लिखंतुओं के मन—मस्तिष्क में उमड़—घुमड़ रहे हैं।
यह खेल दरअसल दस—पंद्रह दिन पहले शुरू हुआ। भाजपा मुख्यमंत्री तीरथ रावत की विदाई का मन बना चुकी थी। संघ और भाजपा के ताजातरीन चुनावी सर्वे उसे उत्तराखंड में सबसे बड़ी हार की ओर तेजी से दौड़ने का इशारा कर रहे थे। मोदी—शाह की चिंता वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर तो थी ही,लेकिन उनकी सबसे बड़ी परेशानी हरिद्वार लोकसभा सीट पर भाजपा की लगातार कमजोर होती जा रही स्थिति को लेकर थी।
खबर तो यह भी है कि मोदी अगला लोकसभा चुनाव हरिद्वार से लड़ सकते हैं। कुंभ की असफलता और कोविड टेस्ट घोटाले ने दोनों की चिंताएं और बढ़ा दी थीं। भाजपा मान चुकी थी कि 2022 का विधानसभा चुनाव वह उत्तराखंड में हारने जा रही है। इस हार का ठीकरा किसी ऐसे चेहरे पर मढ़ा जाए जो इनोसेंट हो, गैर राजनीतिक हो तथा जिसकी राजनीति में कतई रुचि न हो। फिर हार के बाद उसकी राजनीतिक अपरिपक्वता का बहाना बनाकर अपनी इमेज सुरक्षित रखी जाए।
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रणनीतिकार अपनी योजना पर बहुत सावधानी से काम कर रहे थे। उन्होंने चंद्रशेखर के जीवन—वृत्त का बहुत सावधानी से अध्ययन किया। वे जानते थे कि कई मुख्यमंत्रियों की टीम में प्रमुख भूमिका निभा चुके चंद्रशेखर की आमद उत्तराखंड की हर ग्राम पंचायत तक है। वह अंत्योदय विकास योजना, मुख्यमंत्री जन शिकायत प्रकोष्ठ, मुख्यमंत्री जनता—मिलन कार्यक्रम के कई वर्ष राज्य प्रभारी रहे हैं। बहुचर्चित अटल खाद्यान्न योजना एवं सेवा का अधिकार अधिनियम उन्होंने ही उत्तराखंड में शुरू करवाया। केवल चार घंटे विश्राम करने वाले चंद्रशेखर हर फोन को स्वयं ही उठाते हैं। गांव—गांव में आज भी उनकी कुशल प्रशासनिक क्षमता के किस्से हैं। शीर्ष अदालतों में भाषायी स्वतंत्रता के उनके देश व्यापी अभियान का प्रभाव केंद्र उत्तराखंड ही है। नैनीताल हाईकोर्ट में मुकदमों की कार्यवाही हिंदी में कराने के लिए उन्होंने कड़ा संघर्ष किया है। मुख्यमंत्रियों की टीम में रहते हुए प्रतिदिन बीस से 25 लोगों की समस्या का निस्तारण वे कर चुके चंद्रशेखर की राजनीति में कतई रुचि नहीं है। वह हमेशा मीडिया और उसके कैमरों से दूर रहते हैं। भाजपा के रणनीतिकारों को इस दृष्टि से चंद्रशेखर का नाम सबसे मुफीद लगा।
तीरथ रावत से दिल्ली में इस्तीफा लेने के बाद बाकायदा तरीके से चंद्रशेखर का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए चलाया गया।सूचना फैलते ही संघ के शीर्ष नेतृत्व के कान खड़े हुए। कुछ शीर्ष लोगों को देहरादून भोजा गया। भावुक बातें हुईं। बाहर रह रहे चंद्रशेखर के बुजुर्गों से चंद्रशेखर की बात कराई गई। जन संघ के स्थापना पुरुष पं.दीनदयाल उपाध्याय की धधकती चिता के समक्ष संघ—प्रमुख रहे गुरु गोलवरकर, नाना जी देशमुख और सुंदर सिंह भंडारी की उपस्थिति में उनके पूर्वजों द्वारा ली गई वह शपथ और प्रतिज्ञा याद दिलाई गई जिसमें कहा गया था कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य संघ की किसी भी राजनीतिक शाखा में नहीं जाएगा। चंद्रशेखर को उनके देशव्यापी ंिदी से न्याय अभियान की चरणबद्ध सफलताओं का ध्यान दिलाया गया और अंतत: भाजपा के इस प्रस्तावको ससम्मान अस्वीकार करने के लिए उनसेकहा गया; इसके पश्चात परिवार के एक वरिष्ठ सदस्य ने इसकी सूचना भाजपा को दी।
रणनीतिकारों के हाथ—पांव फूल गये; उत्तराखंड भाजपा के बड़े सूरमा किसी भी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए पहले ही भाग खड़े हुए थे। वे हार के दांवसे बचना चाह रहे थे , अपना राजनीतिक कैरियर मुकम्मल रखने के लिएनित नए बहाने गढ़ रहे थे। नतीजा यह हुआ कि किसी बैक बेंचर को पहली सीट पर बैठाने की कवायद शुरू हो गई। पुष्कर की तख्तनशीनी इस धरी हुई योजना कापरिणाम है।
उधर पुष्कर के मुख्यमंत्री बनने की घोषणा के बाद उत्तराखंड भाजपा का राजनीतिक तापमान बढद्य गया। सूरमा तरीके से पलायन कर गए। झगडद्या उनके बीच हो रहा है जिनका नाम कभी मुख्यमंत्री पद के लिए था ही नहीं, आने वाला समय भाजपा के लिए और कठिन होगा। उत्तराखंड में भाजपा एक बड़ी टूट की ओर बढ़ रही है। रणनीतिकार इतना खुश हो सकते हैं कि दोष मढ़ने के लिए उन्हें एक सिर मिल गया है।