ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने चुनावी फतह भले ही हासिल कर ली हो लेकिन अपने प्रतिद्वंद्वियों से बदला लेने का एक भी अवसर वह अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहती। नंदीग्राम में तो ममता बनर्जी के चुनाव हारते ही शुभेंदु अधिकारी के साथ तृणमूल कार्यकर्ताओं ने हाथापाई और मारपीट की। भाजपा के दफतर पर हमला बाल दिया और जब 5 मई को ममता मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाली है तब भी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता भाजपा कार्यकर्ताओं और तृणमूल के बागियों से बदला लेने पर उतारू है। कांग्रेस ने भी हिंसा की इस राजनीति पर आपत्ति जाहिर की है और भाजपा ने तो इस मामले में कोट्र का दरवाजा तक खटखटा दिया है।
बंगाल की सियासत का विकृत चेहरा सामने है। मतगणना के तुरंत बाद राजनीतिक विरोधियों पर हमले शुरू हो गये। विरोधी पक्ष के नेताओं को निशाना बनाने, पार्टी दफ्तर को आग के हवाले करने, दुकानों को लूटने और घरों में आग लगाने, विपक्षी कार्यकर्ताओं की हत्या करने का सिलसिला चल रहा है। यह सब हो रहा है और भारी बहुमत से जीतने वाली मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता इसे विरोधी पार्टी की कलह और केन्द्रीय बलों की ज्यादती बता रहे हैं।
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इसे बंगाल या देश का दुर्भाग्य कहा जायेगा कि इस राज्य में जो भी सत्ता में आता है वह खून का प्यासा हो जाता है। साठ-सत्तर के दशक में जब कांग्रेस की सरकार थी तब उसने भी राजनीतिक विरोधियों के साथ क्रूर और हिंसक बर्ताव किय था, साढे तीन दशक तक वामपंथियों की सरकार रही और राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने का खेल चलता रहा। कभी इसी हिंसा की शिकार रहीं ममता बनर्जी तीसरी बार सत्ता में आयीं हैं लेकिन जैसे ही उनको किसी पार्टी से गंभीर राजनीतिक चुनौती मिली तो हिंसा का खेल शुरू कर दिया।
लोकतंत्र में जिसको जनादेश मिलता है उसे सरकार चलाने का अधिकार है, लेकिन सरकार मनमाने ढंग से नहीं चलायी जा सकती है। सरकार पार्टी की नीतियों, कार्यकर्ताओं की इच्छा और बदले की भावना से नहीं चलती। सरकार संविधान से चलती है और चुनाव के बाद जिसकी भी सरकार बने, उसके लिए सभी नागरिक समान होते हैं। ममता बनर्जी तीसरी बार चुनी गयीं हैं। उन्हें सरकार बनाने और चलाने का पूरा अधिकार है, लेकिन एक नागरिक के तौर पर चाहे वह सरकार के साथ हो या विरोध में, उसका विचार एवं मत कुछ भी हो, इससे उसके अधिकारों पर कोई असर नहीं पड़ता है। लेकिन बंगाल में लगता है सत्तारूढ़ दल पर कानून का राज नहीं चलता है, तभी तो जिस दल की सत्ता होती है उस पार्टी के अपराधी बेलगाम होकर सड़कों पर तांडव करते हैं और सरकारी मशीनरी उसके संरक्षण में लगी रहती है।
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राजनीतिक बदले का यह तांडव दरअसल पुलिस और प्रशासन के सियासीकरण का भी परिणाम है। अगर प्रशासन निष्पक्ष रहे तो कोई सियासी अपराधी इतने बेलगाम नहीं हो सकते। बंगाल में जो कुछ हो रहा है वह देश के संविधान और लोकतंत्र की हत्या है और इसे रोकने का दायित्व सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार का है। बंगाल हिंसा पर तथाकथित बुद्धिजीवी और सहिष्णुता के धंधेबाज चुप रहेंगे लेकिन देश की जनता यह सब देख रही है। चुनावी जीत के बाद अगले पांच साल तक शासन करना ममता बनर्जी और उनकी पार्टी का अधिकार है, इसके लिए हिंसक तांडव की जरूरत नहीं है, लेकिन जो कुछ बंगाल में हो रहा है और ममता बनर्जी और उनकी पार्टी इस पर चुप हैं उसकी सजा जरूर मिलेगी।
ममता बनर्जी राष्ट्रीय राजनीति का चेहरा बन सकती थीं, लेकिन जिस तरह उन्होंने घोर क्षेत्रीयता, असहिष्णुता का प्रदर्शन किया है उससे पूरे देश में उनके खिलाफ आक्रोश है। वे जिस भी सियासी गठजोड़ का चेहरा या हिस्सा बनेंगी उसको नुकसान उठाना पड़ेगा। जहां तक बंगाल की बात है तो वहां टीएमसी जीती जरूर है लेकिन भाजपा भी बराबर की ताकत बन गयी है और सत्ता परिवर्तन लोकतंत्र का स्वभाव है। इसलिए ममता बनर्जी और उनकी पार्टी को लोकतंत्र के इस चरित्र का समझना चाहिए। उनको सत्ता मिली है तो इसकी जिम्मेदारी का अहसास भी होना चाहिए।